Monday, August 21, 2017

मित्रश्रेष्ठ

गए सखा! हे मित्रश्रेष्ठ!
पूरी होगी साध
आज पाकर दर्शन
तुम्हारे चरण-कमलों की!
कुंड भर उठे हैं आँखों के
सूख चुके जो बिन दर्शन

जीर्ण-शीर्ण मानव के
माँस-विहीन शरीर को लख
अश्रुधार हैं छूट पड़े
आँखों से उस मित्र के
जिसके चरण-कमल से ही
गंगा का उद्भव हुआ था I

सभा थी शांत!
बिखर पड़ा था सन्नाटा!
हो सन्निपात, उस राजसभा में
केवल दो की ही आँखे तकतीं थी

उस ओर जिधर पसरा था

प्रेम का दर्पण जिसमें नित सबेरे
सखा सजा-संवरा करते हैं!
धो चरण सखा के
आलिंगन में ले सुदामा को
कृष्ण ने भरी सभा में
राजसिंहासन पर बिठाया
स्वयं थे बैठे समीप
सिंहासन के, किन्तु नींचे!

 

कहो सखा!
पूछ उठे माधव!
कहाँ थे रहते?
मेरे किस अपराध-वश
भूल गए थे गुरुभाई को?
मैं घिरा हुआ था राजभार से
किससे कहता? कैसे कहता?
बस मन ही मन मैं चुप रहता
मित्र तो केवल तुम ही थे!
ब्रज के वन जो घूमा करता
ऐसे स्वछंद कान्हा को
राजधर्म की जंजीरों में
बंधने का दर्द
आख़िर कौन सुनता?

कहते-कहते कृष्ण ने
जब मित्र के पैरों को देखा
अश्रुधार फिर बह निकले
पकड़ कर पाँव सुदामा के
लगे हाथों से सहलाने!
क्षमा करना सखा मेरे!
किन-किन कष्टों से आये तुम!
कैसे-कैसे दुर्दिन फिरे!
पूछ, मैं तुमसे ही प्रश्न कर बैठा!

केवल करने को मन संतुष्ट स्वयं का
धिक्कार मुझे है!

 

मित्रश्रेष्ठ कहतें हैं माधव
मुझ सुदामा को
जो गुरु-आश्रम में
वर्षा की रात

खा गया था
माधव का भी भाग!
जिसे दिया था गुरुमाता ने
बांटने को आधा-आधा!
यह सोच भर उठे नयन
आत्मग्लानि में सुदामा के!

बस कह उठे तुरंत
हे माधव! हे सखा! गुरुभाई!
अपराध नहीं तुम्हारा
किन्तु वह मेरा था, परिणामस्वरूप

ले भिक्षापात्र भटका हूँ मैं घर-घर
पाने को ठीक वही आधा भाग
जो खाया था मैंने गुरु-आश्रम में
वर्षा की रात तुम्हारे हिस्से का!

मैं मित्र नहीं! मैं श्रेष्ठ नहीं!
सच पूछो तो मानव ही नहीं!
जो मन में मेरे
मानवता रही थी!
उस आत्मग्लानि में अब तक तड़पा
क्षमा करो माधव मुझे!
नहीं! इसलिए नहीं कि

मैं तड़प रहा हूँ वर्षों से!
अपितु! क्षमा करो माधव, कि

अपनी आत्मग्लानि के कारण
मैंने मित्र-प्रेम से वर्षों तक
है तुमको वंचित रखा!
यह कह रो उठे सुदामा
फूट-फूट कर!
चकित सभा यह दृश्य देख!
दोनों में कौन मित्रश्रेष्ठ?

 

कहों सखा! पूछे माधव,
कैसी हैं भाभीश्री?
इतने वर्ष हैं बीत चुके अब तो

खेलते होंगे बच्चे आँगन में!
बताओ मुझे! क्या नहीं सुनाया?
बच्चों को किस्सा गुरु-आश्रम का
जहाँ हम सखा साथ-साथ पढ़ा करते थे!
क्या नहीं बताया?
कैसे मैं चंचल बस इधर-उधर ही
बाल-लीला किया करता था
और कैसे तुम सखा मेरे
ढँक मेरी चंचलता को
एक उदात्त भाव दिया करते थे!

क्या नहीं बताया? कैसे-कैसे?
एक चंचल-नटखट बच्चे को
बाँध दिया राजपाश से
करने को राज द्वारिका पर
बन द्वारिकाधीश!
ब्रज छूटा, छूटी राधा
छूटा यमुना तट भी
छूटी मईया, नन्दबाबा

छूटे संगी-सखा भी!
बस तीर लगे नन्हें शावक सा
इस राजभवन में, तड़पन में
मैं विचरण करता रहता हूँ!

बताओ मुझे! दिखाओ मुझे!
यह क्या है? बंधी पोटली?
क्यों छिपा रहे हो तुम
अपने इस गुरुभाई से?
क्या याद नहीं कई वर्ष-पूर्व
छिपा गए थे ऐसी ही पोटली
गुरु-आश्रम में वर्षा की रात
जो दिया था गुरु-माता नें!
हैं कसम तुम्हें मेरे नाम की!
जो पुनः दुहराकर वही कहानी
तुम्हारे दर्शन से मुझको
वर्षों तक वंचित रखोगे!

 

छूट गयी पोटली सुदामा से
लपक उठे झट से माधव,

खोले और बोले!

वाह-वाह! भेजा है भाभीश्री ने
चावल मुझको बहुत प्रेम से
भूख मेरी वर्षों की
अब जाकर पूरी होगी!
पहली मुट्ठी में भरकर
नेत्र-मूँद खा गए माधव
किंतु क्षुधा अभी भी
कुछ बची बाकी थी!
दूसरी मुट्ठी में भरकर
जैसे ही मुख के अन्दर निगले
सौंप चुके थे माधव
दो लोक सुदामा को!
थे प्रेम में डूबे इतने माधव
फिर भी भूख मिटी नहीं
पुनः पोटली में डाल हाथ
भर लिए तीसरी मुट्ठी भी!
जैसे हुए खाने को
हाथ पकड़ बैठी
लक्ष्मी-रूपा रुक्मणि!
कर उठीं विनय,
हे प्राणनाथ! हे जगन्नाथ!
कुल मिलाकर बस
अब एक ही लोक बचा है!
हे कृपासागर! करो कृपा!
रहने दें यह एक लोक
बाकी सारे मानव की!

ध्यान भंग! छूटे माधव!
उस प्रेम भरी तन्द्रा से
शुरू हुई पुष्प-वर्षा
आकाश से देवों के द्वारा!
स्मरण रहेगा जग को सदा

यह मित्र-प्रेम!

हे मित्रश्रेष्ठ!

-अमर कुशवाहा

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