मुझे मालूम है कि तेरी दुनिया नहीं हूँ मैं
तू हीर न हुयी तो क्या राँझा रहा हूँ मैं
हुआ जब भी तेरा ज़िक्र तो मुझमें साँस आती है
मेरी राहें भी अक़्सर मुझे तेरे घर खींच लाती हैं।
तेरी रुसवाइयों के चर्चे ज़माने में छिड़े फ़िर भी
ज़रा सी आरज़ू लेकर अड़ा हूँ सामने अब भी
तेरे दहलीज़ से वापिस ग़र मैं ख़ाली हाथ जाऊँगा
भला कैसे ये लाचारी मैं दुनिया को दिखाऊँगा?
न फ़ूल हों दामन में तो काँटे ही बिछा देना
न मन करे फ़िर भी ज़रा सा मुस्करा देना
मेरे पावों से रिसते रक्त हँसते ही रहते हैं
यही हासिल-ए-मुहब्बत है ऐसा लोग कहते हैं।
यही क्या कम है कि उनकी गलियों से गुज़रा है
नूर-ए-ज़न्नत को देख कोई क्या ऐसे मुक़रा है?
तुझसे इतनी मुहब्बत है कि तुझे कोई तकलीफ़ न दूँगा
मेरे होने का ग़र ग़म है तो ये दुनियाँ छोड़ भी दूँगा।
मेरे मौला रहम करना यहीं क़ुर्बान हो जाऊँ
उनके काले-घने गेसूं में फ़िर से मैं छिप जाऊँ
वहीं सूखूं, वहीं फूलूँ, वहीं उग-उग कर मैं आऊँ
क़यामत तक ये दहलीज़ मग़र न छोड़ कर जाऊँ।
-अमर कुशवाहा