फासला इतना रहे कि बुत-तराश हो जाऊँगा मैं
फ़ासला ग़र ज़्यादा बढ़ा तो काश हो जाऊँगा मैं।
चुप्पियाँ इतनी रहें कि तुम ही कुछ कहती रहो
चुप्पियाँ ग़र ज़्यादा बढ़ीं तो ख़ाक़ हो जाऊँगा मैं।
अश्क़ इतने ही रहें कि तुम सिसकती सी रहो
अश्क़ ग़र ज़्यादे बढे तो राख हो जाऊँगा मैं।
प्रेम इतना ही रहे कि तुम बेफ़िक्र सी रहो
प्रेम ग़र ज़्यादा बढ़ा तो पाश हो जाऊँगा मैं।
इबादतें इतनी रहें कि तुम क़लमा रहो ‘अमर’
-अमर
कुशवाहा
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