Tuesday, June 30, 2020

तिलिश्म-ए-दुनियां

तुम्हारे तिलिश्म--दुनियां को  छूट जाना है

ये  जो   नाज़ा--क़लम  है   टूट  जाना  है।


हवाओं में  खड़े  किये हो  जो  ईबारतें नयीं

जम्हूरियत को एक दिन इनसे रूठ जाना है।


कहानियों  का  मुल्क़ है  संभावना गढ़े रहो

खौलता  पानी  है  बस  भाप  उड़ जाना है। 


पेट है  सिकुड़ा हुआ  और  उभरीं पसलियां

हाशिये पर है लहू उसको भी सूख जाना है।


आँधियों में चाह थी चिराग़ जलाने की 'अमर'

अब लड़खड़ाती राह  में  बहुत दूर जाना है।


-अमर कुशवाहा

Tuesday, June 16, 2020

और क्या होगा?

तुम्हारे शहर की गलियों का हाल क्या होगा?

जो हम नहीं वहाँ तो फ़िर ही और क्या होगा?

 

दरख्तों  के  दरकने   से  जो  दब  जाती  हो

ऐसी   सदा  से  फ़िर  ही   और  क्या  होगा?

 

बहुत  सुने   हैं  ज़न्नत- -हूर   के  क़िस्से

जो तुम नहीं वहाँ तो फ़िर ही और क्या होगा?

 

नश्तरों  से  जिसने  लकीरों  को  तराशा  हो

ज़रा  से  ज़ख्म  से  फ़िर ही और क्या होगा?

 

अल्फ़ाज़  ग़र  होंठों  तक आकर ठहर जाये

ऐसे  इक़रार  से  फ़िर  ही  और  क्या होगा?

 

जिसके  मिसरों   से   पलकें     डूबी  जायें

ऐसी  ग़ज़ल  से  फ़िर  ही  और  क्या  होगा?


सारी  रात  तेरी  याद  में  जलता  है  'अमर'

बुझते  दीये  से  फ़िर  ही  और  क्या  होगा?

-अमर कुशवाहा
   १६.०६.२०२०