Thursday, June 18, 2015

मेरी अंतिम अभिलाषा

द्युत सा मैं कौंध सकूँ

अन्य का पथ आलोकित हो

कण-कण मिलाऊँ सलिल-पवन से

एक विश्व नया समेकित हो!

 

प्रेम, प्राप्ति में कंपन

भवसागर अनंत निगमन

नीरव रुधिर भाव दमन

अति विषय कभी सघन!

 

कनक-कनक के खन-क्षण से

भय-व्याप्ति सदा प्रतिकार रहे

मौन भरा सम्मोहन बिखरे

प्रकृति-जगत अकाट्य रहे!

 

स्वयम के बंधन के पट खोल

एक लक्ष्य नया एक मग नवीन

प्रथम किरण ज्यों धरा उतरे

कर्मों में नित्य मैं मगन प्रवीण!

-अमर कुशवाहा