Thursday, November 16, 2017

मैं तुम्हें प्रेम नहीं करता...

नहीं! मुझे पूरा यकीन है! मैं तुम्हें प्रेम नहीं करता!

लेकिन अमावस की भयानक अँधेरी रात में

जब भी कभी बिजली गुल हो जाती है

तो अक्सर पाया है मैंने तुम्हें

मेरा हाथ थाम कर

मुझे अँधेरे से बाहर निकालते हुये!

 

नहीं! मुझे पूरा यकीन हैं! मैं तुम्हें प्रेम नहीं करता!

लेकिन जीवन के प्रत्येक कठिन परीक्षाओं में

जब भी हारने से घबरा उठता हूँ

तो अक्सर पाया है मैंने तुम्हें

मुझसे लिपट कर

मेरे माथे को सहलाते हुये!

 

नहीं! मुझे पूरा यकीन है! मैं तुम्हें प्रेम नहीं करता!

लेकिन हमारे-तुम्हारे इस अन्जान रिश्ते के मध्य

जब भी कभी दूर होती दिखती हो

तो अक्सर पाया है मैंने तुम्हें

अपने हाथों से

मेरे आंसुओं को पोंछते हुये!

 

नहीं! मुझे पूरा यकीन है! मैं तुम्हें प्रेम नहीं करता!

-अमर कुशवाहा

Tuesday, November 14, 2017

बादलों की ऊँचाई पर...

बादलों की खिड़कियाँ खोलते हैं

चलो मिलकर चाँदनी को ढूंढ़ते हैं!

 

रूई के फाहों के धुंध में

शायद कहीं गुमशुम सी बैठी हो

अपनी नरमाई में लिपटी हुयी

हौले से उसके पलकों को खोलते हैं!

 

रात भर सोती रही मेरे बाग़ों में

चाहकर भी मैंने उसे नहीं जगाया

शीशे की चाशनी से आती रही छनकर

बेफ़िक्र हो हम उसे पूरा ओढ़ते हैं!

 

जब नींद खुली तो उसे ग़ुम पाया

अब सूरज के ताप का मैं सताया

वह नहीं उसकी शीतलता भी नहीं

कहाँ है ग़ुम अब बस यही सोचते हैं!

 

बादलों की खिड़कियाँ खोलते हैं

चलो मिलकर चाँदनी को ढूंढ़ते हैं!

-अमर कुशवाहा

Thursday, November 2, 2017

मैं बन के फिरूँ कृष्ण तुम्हारा...

शस्य श्यामला यमुना तट अब महलों की मथुरा

स्वछंद फ़िरा जो वन-उपवन राजपाश में था जकड़ा

थी बरसाने मथुरा में दूरी पर प्रेम को जिसने साधा

मैं बन के फिरूँ कृष्ण तुम्हारा तुम बन जाओ मेरी राधा!

 

जब तक होंठों पर थी मुरली ब्रज में संगम होता रहता

चक्र का बोझ अब हाथों में क़िससे कहता कैसे कहता?

भावों पर टिका था पूर्ण प्रेम, कभी मिलन बनी बाधा

मैं बन के फिरूँ कृष्ण तुम्हारा तुम बन जाओ मेरी राधा!

 

घिरा हुआ अपनों से ब्रज में मथुरा में मन भी छोड़ गया

हर पहर प्रतीक्षा करते-करते स्वप्नों को भी तोड़ गया

प्रेम-वेदना दोनों सहते रहते बाँट बराबर आधा-आधा

मैं बन के फिरूँ कृष्ण तुम्हारा तुम बन जाओ मेरी राधा!


-अमर कुशवाहा