Tuesday, November 14, 2017

बादलों की ऊँचाई पर...

बादलों की खिड़कियाँ खोलते हैं

चलो मिलकर चाँदनी को ढूंढ़ते हैं!

 

रूई के फाहों के धुंध में

शायद कहीं गुमशुम सी बैठी हो

अपनी नरमाई में लिपटी हुयी

हौले से उसके पलकों को खोलते हैं!

 

रात भर सोती रही मेरे बाग़ों में

चाहकर भी मैंने उसे नहीं जगाया

शीशे की चाशनी से आती रही छनकर

बेफ़िक्र हो हम उसे पूरा ओढ़ते हैं!

 

जब नींद खुली तो उसे ग़ुम पाया

अब सूरज के ताप का मैं सताया

वह नहीं उसकी शीतलता भी नहीं

कहाँ है ग़ुम अब बस यही सोचते हैं!

 

बादलों की खिड़कियाँ खोलते हैं

चलो मिलकर चाँदनी को ढूंढ़ते हैं!

-अमर कुशवाहा

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