जीवन की
हलचल राहें हैं दामन की खुली बाहें हैं
रुकना तेरा लक्ष्य नहीं सर्वव्यापी उसकी निगाहें हैं
जब बात
आयी थी
सपनो की
तो सबसे आगे तू
ही था
शुरुआत अगर
कर ही
दी है
तो घेरे तुझको क्यों साये हैं?
बड़ी उम्मीदें थी तुझसे जब चिंगारी को जलाया था
अपने क़दमों के हुंकार से ज्वाला को लहराया था
वही कदम
हैं वही
हैं राहे तो आज
तू रुका क्यों हैं?
याद कर
उस चोटी को जिस
पर ध्वज फहराया था!
अपने हाथों की ताकत से जंजीरों को तोडा था
कर-कमलों के एक
प्रहार से
चट्टानों को
फोड़ा था
पर आज
तेरे हाथों को पुष्प-हारों ने
बाँध रखा
है
कभी अपने निश्चय से
हवाओं का
रुख मोड़ा था!
सारे तेरे अंग वही
है तो
क्यों विचलित अब है?
तेरे इस
अग्निपथ को
निहार रहे
अब सब
हैं
तोड़ दे
मादकता का
बंधन छेड़
दे फ़िर
संग्राम
जीवन भर
लड़ना है
नहीं हैं
इस युद्ध की शाम!
-अमर कुशवाहा