Friday, October 9, 2015

सँवारता रहूँ

अब्र पर तेरा अक्स मैं उभारता रहूँ

सितारों को जमीं पर उतारता रहूँ!

 

रात में आओ पर चाँद बनकर आओ

छू सकूँ तुम्हें दूर से निहारता रहूँ!

 

वादा करो मगर आओ कभी नहीं

हर उम्र तेरी याद में मैं गुजारता रहूँ!

 

ग़र सुन भी लो तो झुठला दो मुझे

नाम तेरा बार-बार मैं पुकारता रहूँ!

 

ठोकरें दो पर टूटे आशियाँअमर

तस्वीर तेरी देख सपने सँवारता रहूँ!


-अमर कुशवाहा

Sunday, August 9, 2015

सह गये

नहीं बिखरना मुझसे बस इतना कह गये

वगरना कई और थे मझधार में बह गये!

 

ख्व़ाब लेकर उड़े सबको दूर कहीं फ़लक पर

हर मोड़ पर मुड़ते रहे और हम वहीं रह गये!

 

ज़ज्बात बातों के नहीं सवाल कुछ होंठों के थे

आँख मुस्कराई ही थी कि आँसुओं से भर गये!

 

नसीब के एक खेल ने हमको किया इज़ारा

छाँव में जिसकी थी करवट रात में ढह गये!

 

कोशिश बहुत की आख़िर दरख्तों नेअमर

कारवाँ लंबा रहा मगर दूरी को हम सह गये!


-अमर कुशवाहा

Thursday, June 18, 2015

मेरी अंतिम अभिलाषा

द्युत सा मैं कौंध सकूँ

अन्य का पथ आलोकित हो

कण-कण मिलाऊँ सलिल-पवन से

एक विश्व नया समेकित हो!

 

प्रेम, प्राप्ति में कंपन

भवसागर अनंत निगमन

नीरव रुधिर भाव दमन

अति विषय कभी सघन!

 

कनक-कनक के खन-क्षण से

भय-व्याप्ति सदा प्रतिकार रहे

मौन भरा सम्मोहन बिखरे

प्रकृति-जगत अकाट्य रहे!

 

स्वयम के बंधन के पट खोल

एक लक्ष्य नया एक मग नवीन

प्रथम किरण ज्यों धरा उतरे

कर्मों में नित्य मैं मगन प्रवीण!

-अमर कुशवाहा

Monday, March 9, 2015

केवल तुम

बस शमां लाने का कुछ मैं जतन कर दूँ

चाहता हूँ पल भर के लिये रौशन कर दूँ!

 

कितने ख़ामोशी में बैठे हो अंधेरों में

एक मुस्कान पर ख़ुद को दर्पण कर दूँ!

 

निहार सकों तुम खुल के आसमाँ सारा

सूरज को इस क़दर मैं शीतल कर दूँ!

 

पहुँच सको बेहिचक अपने मक़ाम तक

हाथों से पहाड़ों को मैं ओझल कर दूँ!

 

बहुत मासूमियत से हैं सवाल तेरेअमर

आओ जबाबों से तुझे मैं बोझल कर दूँ!

-अमर कुशवाहा

Saturday, March 7, 2015

नहीं है इस युद्ध की शाम

जीवन की हलचल राहें हैं दामन की खुली बाहें हैं

रुकना तेरा लक्ष्य नहीं सर्वव्यापी उसकी निगाहें हैं

जब बात आयी थी सपनो की तो सबसे आगे तू ही था

शुरुआत अगर कर ही दी है तो घेरे तुझको क्यों साये हैं?

 

बड़ी उम्मीदें थी तुझसे जब चिंगारी को जलाया था

अपने क़दमों के हुंकार से ज्वाला को लहराया था

वही कदम हैं वही हैं राहे तो आज तू रुका क्यों हैं?

याद कर उस चोटी को जिस पर ध्वज फहराया था!

 

अपने हाथों की ताकत से जंजीरों को तोडा था

कर-कमलों के एक प्रहार से चट्टानों को फोड़ा था

पर आज तेरे हाथों को पुष्प-हारों ने बाँध रखा है

कभी अपने निश्चय से हवाओं का रुख मोड़ा था!

 

सारे तेरे अंग वही है तो क्यों विचलित अब है?

तेरे इस अग्निपथ को निहार रहे अब सब हैं

तोड़ दे मादकता का बंधन छेड़ दे फ़िर संग्राम

जीवन भर लड़ना है नहीं हैं इस युद्ध की शाम!


-अमर कुशवाहा