कागज़ पर
सोई स्याही से लड़ना तुम्हें ख़ूब
आता है
हँसते-हँसते आँखों में
आँसूं भरना तुम्हें ख़ूब
आता है!
नज्में जो
लिखे नींदें खोकर एक-एक कर
बिखर गये
अक्षर-अक्षर चुन-चुन
कर सिलना तुम्हें ख़ूब
आता है!
आधी रात
को जागा चंदा न
जाने कब
तक तपता है
डार से
बिछुड़ें हुये प्रेम में
जलना तुम्हें ख़ूब आता
है!
एक साँस मेरी मुझसे ही रूठकर कहीं सिरहाने छूट गयी
आँचल में सुलाकर के चहरा डरना तुम्हें ख़ूब आता है!
ये मौज-ए-मोहब्बत न जाने किस साहिल पर ठहरे ‘अमर’
चलती-फिरती राह से आख़िर मुड़ना तुम्हें ख़ूब आता है!
-अमर कुशवाहा