Friday, December 9, 2011

मेरा हिमालय

मेरे छत के पाईप से

हर बरसात में

पानी की मोटी धार गिरती है

और मैं देखता हूँ

कृत्रिम-प्रकृति का संगम!

मुझे मेरी चौहद्दी में ही

एक झरना मिल गया है!

लगाया है मैंने, अशोक, ताड़,

आम, अमरूद, केला, गुड़हल,

गेंदा और गुलाब!

घर के पीछे की ज़मीन

उबड़-खाबड़ है,

यही मेरा हिमालय है!

अमरनाथ की यात्रा

बाबूजी के पैर दबाकर होती है

और माँ के गोद में सिर रखकर

गंगोत्री भी पहुँचता हूँ!

फ़िर, हमारे ह्रदय से प्रेम की

गंगा-यमुना भी निकलती है

जिसमें हर क्षण नहाकर

हम नितांत शुद्ध हैं!


-अमर कुशवाहा

Friday, September 9, 2011

भूले-बिसरे

 ख़ामोशी के सबब का मैं इसरार नहीं करता

अपनों के दिये ज़ख्म मैं बरबाद नहीं करता!

 

रौशनी के तारीफ़ के हैं अब पुलिंदे बंध रहे

बरबस पिघलता मोम कोई फ़रियाद नहीं करता!

 

तोड़ के ग़ुलाब को ले जाता है हर कोई

काँटों की पहरेदारी का कोई हिसाब नहीं करता!

 

तिनके को जोड़-जोड़ कर बनाया था आशियाँ

अब सूखी टहनियों से कोई क़रार नहीं करता!

 

बुलाती हैं आज भी चंचल फ़िज़ायेंअमर

पर राह में बैठा कोई इंतज़ार नहीं करता!

-अमर कुशवाहा

Monday, May 9, 2011

जिनको महकना था

हर नज़र से मिले हर शहर से मिले

नफ़रत ही सही मगर दिल से मिले!

 

रौशनी की चादर अब हवाओं से फटी

बिछती है जमीं मगर बिना ही सिले!

 

अंदर जो ग़ुबार है बाहर तू निकाल

यूँ हीं जाया नहीं करते शिकवे गिले!

 

धूप बस जलती रही ग़म बराबर उठे

जिनको महकना ही था अचानक खिले!

 

देखने को आरज़ू मचलती रहीअमर

क़दम हमारे मगर बेमौत ही जा छिले!

-अमर कुशवाहा

Thursday, February 10, 2011

संध्या-सुंदरी

कुछ झंकृत डालों के स्वर कुछ पत्तों की आबाध उड़ान

कुछ स्वप्नों के नीड़ तले बिखरी हुयी अपनी पहचान

कुछ छाया के बीच फैले थोड़े से प्रकाश का भान

कुछ मिट्टी के जड़ों को अलग करता कोई अंजान!

 

कुछ देर अचानक बाद श्याम मेघ का घिर आना

कुछ देर जड़ों का मिट्टी से कसकर भिंच जाना

कुछ वृक्षों का कंपन से ऐसे ही नीड़ को बहलाना

कुछ पराग के कणों का हौले से आपस में मुस्काना!

 

सर्वत्र महकती संध्या का दर्पण कुछ देर चमकती रहती

बिजली की गुलाबी आभा से कुछ अपनी बातें कहती

बिहंगो के भींगे परों से जल की कुछ बूँदे भी बहती

घास की हरियाली लालिमा अपने सब कुछ ऊपर सहती!

 

संकेत शब्द की कुछ लहरें घबराकर कहीं चली गयीं

लौट के मुझसे पूछा कुछ बूँदे अब कहाँ गयीं

कुछ थोड़े से बंधन जकड़न को आकर तोड़ गयीं

संध्या-सुंदरी मुस्काकर रात्रि- पहर को छोड़ गयी!

-अमर कुशवाहा

Wednesday, February 9, 2011

तेरी राह में

इश्क़, फ़रेब, ही कोई क़सम दी मैंने

हौले-हौले ख़ुद ही हाथों से ज़ख्में हैं सी मैंने!

 

क़दम इधर पड़े और पड़े उधर क़दम

निग़ाहों से कुछ इस तरह मय है पी मैंने!

 

इक़रार किया मैंने, इनक़ार किया उसने

ज़ज़्बात दिल ही दिल में बस है दबा ली मैंने!

 

पास ही रुके और शब्बा-खैर ही किया

परछाईं को वफ़ा समझ बस चूम ली मैंने!

 

दर्द परेशां, ख़ुशी का सबबअमर

उनके याद में ऐसे ही है ज़िन्दगी जी मैंने!


-अमर कुशवाहा

Monday, January 10, 2011

चेक एंड बैलेंस

आज सुबह चाय की गरम चुस्कियों के साथ 

एक नया विचार जाने कैसे मेरे मन में आया 

कि समाज की सबसे मूल समस्या का समाधान 

देखो किसी तरह समाज के जड़ में है समाया!


हर तरफ है फ़ैला पोलिटिकल करप्शन

ब्युरोक्रसी भी हो ही गयी है बड़ी टेंशन 

कहने को तो चेक एंड बैलेंस की नीति है 

पर मेरे विचारों को इसी पर ही आपत्ति है!


चेक एंड बैलेंस की नीति अब बदल गयी है 

चेक में बैलेंस पूरी तरह से मिल-घुल गयी है 

चाहें संसद का पोलिटिक्स हो या ग्राम-प्रधानी 

चेक एंड बैलेंस को हर जगह है टाँगें अड़ानी!


प्रश्न यह है कि किसे चेक करें और किसे बैलेंस?

अब नहीं बचा है इस नीति में कोई भी कॉमन-सेन्स 

जब नेताओं एवं नौकरों ने एक-लूट-नीति अपना ली 

तो मैंने चेक एंड बैलेंस की नीति बनाने की ठान ली!


देखता हूँ हर तरफ है फ़ैला समस्या लिंग-भेदभाव की 

लेकिन मानों यही मूल आवश्यकता है मेरे अलगाव की 

अब एक तीर ही से दो शिकार संभव हो सकता है 

भ्रष्टाचार के साथ लिंग-भेदभाव भी खत्म हो सकता है!


कुछ ऐसा करो कि सारे पोलिटिकल पोस्ट महिलाओं को दे दो

और सारी की सारी ब्युरोक्रेसी पुरुषों के लिए सुरक्षित कर दो 

साथ ही तड़के के रूप में बनाओ अब एक और नया क़ानून

ब्युरोक्रेट नहीं मनायेगा किसी पोलिटिकल महिला के संग हनीमून!


ब्युरोक्रेट पुरुष, महिला-नेत्री से गठजोड़ नहीं कर पाएंगे 

क्योंकि ऐसा करने पर वे खुद को दबा हुआ ही पाएंगे 

महिला-नेत्री, पुरुष-ब्यूरोक्रेट से कभी हाथ मिलाएगी

क्योंकि ऐसा कर वो नारी-सम्मान का मौका ही गवाएगी!


अब चेक एंड बैलेंस का नियम पूरी तरह से कारगर होगा 

और लिंग-भेदभाव का समाधान भी निःसंदेह पूरा होगा 

हर प्रान्त में सुख, संपदा एवं ईमानदारी की फसल लहराएगी 

भारत फिर से शस्य-श्यामला, सोने के कण-कण से बिंध जायेगी!


-अमर कुशवाहा