Thursday, February 10, 2011

संध्या-सुंदरी

कुछ झंकृत डालों के स्वर कुछ पत्तों की आबाध उड़ान

कुछ स्वप्नों के नीड़ तले बिखरी हुयी अपनी पहचान

कुछ छाया के बीच फैले थोड़े से प्रकाश का भान

कुछ मिट्टी के जड़ों को अलग करता कोई अंजान!

 

कुछ देर अचानक बाद श्याम मेघ का घिर आना

कुछ देर जड़ों का मिट्टी से कसकर भिंच जाना

कुछ वृक्षों का कंपन से ऐसे ही नीड़ को बहलाना

कुछ पराग के कणों का हौले से आपस में मुस्काना!

 

सर्वत्र महकती संध्या का दर्पण कुछ देर चमकती रहती

बिजली की गुलाबी आभा से कुछ अपनी बातें कहती

बिहंगो के भींगे परों से जल की कुछ बूँदे भी बहती

घास की हरियाली लालिमा अपने सब कुछ ऊपर सहती!

 

संकेत शब्द की कुछ लहरें घबराकर कहीं चली गयीं

लौट के मुझसे पूछा कुछ बूँदे अब कहाँ गयीं

कुछ थोड़े से बंधन जकड़न को आकर तोड़ गयीं

संध्या-सुंदरी मुस्काकर रात्रि- पहर को छोड़ गयी!

-अमर कुशवाहा

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