न इश्क़, न फ़रेब, न ही कोई क़सम दी मैंने
हौले-हौले ख़ुद ही
हाथों से
ज़ख्में हैं
सी मैंने!
न क़दम
इधर पड़े
और न
पड़े उधर
क़दम
निग़ाहों से
कुछ इस
तरह मय
है पी
मैंने!
न इक़रार किया मैंने, न इनक़ार किया उसने
ज़ज़्बात दिल
ही दिल
में बस
है दबा
ली मैंने!
न पास
ही रुके और न
शब्बा-खैर
ही किया
परछाईं को
वफ़ा समझ
बस चूम
ली मैंने!
न दर्द परेशां, न
ख़ुशी का
सबब ‘अमर’
उनके याद
में ऐसे
ही है
ज़िन्दगी जी
मैंने!
-अमर कुशवाहा
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