Thursday, September 20, 2018

शहरी मजदूर...

बिलबिलाकर भूख से बच्चा जमीं पर सो गया

बोरियों में रखा अनाज जब कहीं खो गया!

 

माँ-बाप से लड़ती रही बरसाती के मकान में

इस शहर में देखो हमारा हाल कैसा हो गया?

 

अपने खून को जलाकर जो चार पैसे थे मिले

दो जून का निवाला  भी अब ख्व़ाब हो गया!


क्यों चले आये हम छोड़ कर उस छाँव को

भीड़ में जाने कहीं अपना सामान खो गया!


सूखे पड़े गाँव में बेचारा बाप क्या करेअमर’?

फंदे लटक कर किसान खामोशियों में सो गया!


-अमर कुशवाहा

Friday, September 14, 2018

ग़म का दरिया...

ग़म का दरिया उतर क्यों नहीं जाता?

बीता हुआ लम्हा बिसर क्यों नहीं जाता?

 

सालों से इस तिशनगी में सुलग रहा

आख़िर भरा गुबार बिफर क्यों नहीं जाता?

 

ख्व़ाब के अब्र पर धुंधला सा तेरा अक्स

सहर के आगाज पर बिखर क्यों नहीं जाता?

 

मंजिले अब पूछती हैं राह दीवाने की

किसी मुकाम पर निखर क्यों  नहीं जाता?


एकहांके आसरे पर चलता रहाअमर

आशिकी का जख्म सिफर क्यों नहीं जाता?

-अमर कुशवाहा

Thursday, September 6, 2018

रेखाओं के हारे... (कहानी)

रेखाओं के हारे

एक महीने बाद २८ मई को मेरा विवाह जयश्री के साथ होना तय हुआ है। घर में चारों ओर ख़ुशी का माहौल है, विशेषकर पिताजी बहुत ख़ुश हैं और हो भी क्यों न? उनके मित्र कर्नल शर्मा की पुत्री से मेरा विवाह जो तय हुआ है। पिताजी और कर्नल शर्मा स्नातक के दौरान ही सहपाठी बने थे! सहपाठी क्या बने, धीरे-धीरे दोनों की मित्रता इतनी प्रगाढ़ हो चुकी थी, कि एक-दुसरे के घर के प्रत्येक निर्णय में दोनों का मत पूछा जाता था। समय पर पिताजी दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के सहायक अध्यापक हो गये, और ठीक उसी समय उनके मित्र शर्मा जी का चयन भारतीय थल सेना में हो गया। बचपन से ही दोनों की कहानियाँ मैं सुनता आ रहा हूँ। शर्मा अंकल का प्रेम विवाह हुआ था, जिसके कारण दोनों घरवालों ने उनसे संबंध तोड़ डाले थे! केवल पिताजी ही थे, जिन्होंने पूरे मन से इस विवाह को स्वीकार किया था। केवल स्वीकार ही नहीं किया, बल्कि इस विवाह को पूरा करने की जिम्मेदारी उन्होंने अपने कन्धों पर ले ली थी और उसे पूरा भी करवाया था, जबकि पिताजी पुराने विचारधारा के थे और उनपर दादा जी का भरपूर प्रभाव था और वह प्रेम-विवाह से नफरत ही करते थे। पिताजी का माँ से विवाह भी दादाजी की ईच्छा का परिणाम था, यहाँ तक कि पिताजी ने विवाह-पूर्व माँ का चेहरा तक नहीं देखा था। मैं जो नये युग का था, दिल्ली में ही बचपन से पढ़ाई-लिखाई होने के कारण स्नातक तक पहुँचते-पहुँचते प्रेम-विवाह के स्वप्न बुनने लगा था। ऐसा नहीं था कि पिताजी को इसकी भनक नहीं थी, पर पिताजी थे बिलकुल कड़क, एक ही झटके में सारे पंख कुतरना उन्हें अच्छे तरीके से आता था। इसलिये जल्दी मैं उनके सामने नहीं पड़ता था और वह भी मेरे बारे में यदि कुछ जानना हो तो माँ से ही पूछ लिया करते थे। परा-स्नातक के दौरान ही मेरा चयन इनकम टैक्स इंस्पेक्टर के पद पर हो गया था और पिछले एक वर्ष से मेरी पोस्टिंग मुंबई में थी। मेरे और जयश्री के विवाह के पीछे भी एक कहानी है। हुआ कुछ यूं था कि कारगिल युद्ध के दौरान जब शर्मा अंकल की तैनाती जम्मू-काश्मीर के बारामुला क्षेत्र में थी, उन्हें केवल एक ही चिंता खाये जा रही थी, और वह थी जयश्री की जो तब लगभग पाँच बरस की थी। उन्होंने पिताजी से केवल इतना भर कहा कि यदि वह सरहद से लौट कर नहीं आ पाये तो जयश्री का ख़याल कौन रखेगा? पिताजी ने तुरन्त ही उत्तर दिया कि उन्हें वापिस आना ही होगा जयश्री का कन्यादान करने के लिये! और ठीक उसी समय उन्होंने शर्मा अंकल को मेरे और जयश्री के विवाह का वचन दे दिया था। कारगिल युद्ध भारतीय सेना ने जीता और शर्मा अंकल सकुशल वापिस भी आये, किंतु पिताजी का वचन वैसे ही बरक़रार रहा। यह विवाह उसी वचन का परिणाम है। जयश्री से मैं पहले से ही परिचित था, क्योंकि छुट्टियों में शर्मा अंकल, आंटी और जयश्री अक्सर दिल्ली के सिविल लाइन्स में स्थित हमारे घर पर ज़रूर आया करते थे। देखने में जयश्री सुन्दर थी और पढ़ाई में भी काफ़ी मेहनती। लेकिन अभी तक उसके प्रति मेरे मन में प्रेम का एक भी भाव जगा हो, यह कहना बिलकुल ही गलत होगा। प्रेम पनपने के लिये कुछ पल का साथ, कुछ बातों के छांव की आवश्यकता होती है। किंतु अभी तक हम दोनों की मुलाकात हमेशा घर पर ही और वह भी पिताजी के छत्र-छाया में ही हुयी थी। पिताजी के सामने जयश्री को उसके नाम से पुकारने में ही मेरे पैर कांपने लगते थे, प्रेम के बोल क्या ख़ाक फूटेंगे। बस एक महीने पहले ही पिताजी ने मुझे मुंबई से अपने पास बुलाया। मैं छुट्टी लेकर घर पहुँचा तो मेरे पहुँचते ही उन्होंने अपनी वचन वाली कहानी दुहराई और बोले कि अगले महीने किसी शुभ दिन मेरा विवाह जयश्री से कर दिया जायेगा। माँ ने एक बार पिताजी से कहा कि उन्हें मेरी राय भी पूछनी चाहिये। पिताजी का केवल यही कहना था कि उनके घर में केवल उनकी राय महत्वपूर्ण हैं, उनकी मृत्यु के उपरांत ही किसी और के राय के बारे में बात होगी। मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि पिताजी से कोई सवाल-ज़बाब कर सकूं और इसलिये बात वहीँ समाप्त हो गयी। प्रेम-विवाह के स्वप्नों की समाधि पर पिताजी मिट्टी फेंक कर चलते बने थे। अब बस दिन पर दिन गिन रहा हूँ! विवाह की तिथि निश्चित होने के बाद से न तो मैंने जयश्री को देखा है और न ही मेरी उससे कोई बात हुयी है। बस एक महीने की छुट्टी लेकर यहाँ परिवार के साथ कानपुर में हूँ, क्योंकि पिताजी मेरा विवाह अपने पैतृक घर से ही करवाना चाहते थे। एक तो इतनी गरमी और ऊपर से बिजली का बार-बार आना जाना। उस पर रिश्तेदारों की भीड़ और उनका सुबह-शाम मुझे छेड़ना, सब कुछ मुझे बहुत चिड़चिड़ा  बना रहा है। क्यों नहीं सब पिताजी से ही सब कुछ पूछ लेते? मुझे क्या पता लड़की कैसी है, आदि आदि! मैंने थोड़े ही प्रेम करके सब तय किया है। जिन्होंने तय किया है उनसे पूछने की हिम्मत ही नहीं होती किसी को!
“किशोर भैया! आप कहाँ थे तबसे? पिछले आधे घंटे से ढूँढ रही हूँ!”
मैंने पीछे मुड़कर देखा तो शीला मेरा सेलफोन हाथ में लिये खड़ी थी। शीला मेरे चाचा की बेटी है, उम्र में कोई तीन वर्ष मुझसे छोटी! मैं अपने माता-पिता की इकलौती संतान हूँ, इसलिये मुझे लड़ने वाली बहन का प्यार हमेशा शीला से ही मिला है, जब भी कभी मैं कानपुर आता हूँ।
“शीला! मैं बाज़ार गया हुआ था, माँ ने कुछ सामान मंगवाया था। बताओं, क्या बात है?- मैंने पूछा।
“कोई ख़ास बात नहीं है भैया! बस आप अपना सेलफोन घर पर ही भूल कर चले गये थे। और पिछले आधे घंटे से इस पर बीसों बार एक ही नंबर से कॉल आ रहा है।” –शीला मुस्कराते हुये बोली।
“सेलफोन चार्ज़ नहीं था इसलिये उसे चार्जिंग पर लगाकर भूल गया था। तुम्हें कॉल रिसीव कर लेना चाहिये था, क्या पता ऑफिस से हो या फिर कुछ अर्जेंट रहा हो!”- मै सेलफोन अपने हाथ में लेते हुये बोला।
“न बाबा न! मैं ऐसे ही किसी ऐरे-गैरे का फ़ोन नहीं उठाती!”- शीला खिलखिलाने लगी।
मैने उसकी पीठ पर एक चपत लगायी और वह कमरे के अंदर भाग गयी। सेलफोन अनलॉक करके उसने देखा तो पाया कि अपरिचित नंबर ही था। उसने नंबर मिलाया और घंटी बजने लगी। थोड़ी देर बाद दूसरी तरफ से किसी ने फ़ोन उठाया और उसकी आव़ाज आयी।
“नमस्ते भैया! मैं विवेक बोल रहा हूँ! गोरखपुर से! आप ने पहचाना मुझे?”
“हाय विवेक! कैसे हो? बड़े दिनों के बाद ख़बर ली तुमनें! और सुनाओ?”- मैंने चहकते हुये पूछा।
दूसरी तरफ़ थोड़ी देर ख़ामोशी छायी रही। कुछ पलों के उपरांत विवेक ने बोलना शुरू किया-“ भैया! एक दुःखद समाचार है। राजेश जी की माँ आज सुबह परलोक सिधार गयीं। उनके पड़ोसी ने मुझे फ़ोन करके बताया। मैं अभी बस में हूँ और बस्ती पार कर चुका हूँ! लखनऊ पहुँचने में अभी भी कम से कम चार घंटे और लगेंगे। आप आयेंगे भैया?”
विवेक की बात सुनकर मन न जाने कैसा हो आया। क्या ज़बाब दूँ आख़िर उसकी बात का? क्या मुझे जाना चाहिये? पर राजेश को याद कर के रहा नहीं गया और मैंने उत्तर दिया- “विवेक! मैं तुरंत ही निकलता हूँ! लखनऊ में मिलता हूँ!”
“ठीक है भैया! नमस्ते!” इतना कहकर विवेक ने कॉल काट दिया।
मैंने घड़ी देखी, सुबह के ग्यारह बज रहे थे। कानपुर से लखनऊ की दूरी कुछ ख़ास नहीं है यही कोई १२० किलोमीटर। मैंने माँ को आव़ाज लगायी। माँ रसोईघर में थी, वह निकल कर ड्राइंगरूम में आयी और पूछा-
“क्या हुआ किशोर? इतने जोर से क्यों बुला रहे हो?”
“माँ! मेरे एक परिचित के माता जी का आज सुबह देहांत हो गया है। मैं लखनऊ जाना चाहता हूँ। पिताजी कहीं बाहर गये हैं, सोचा तुम्हीं से पूछ लूं?- मैंने माँ से पूछा।
“यह तो बहुत दुःखद है। चले जाओ पर थोडा जल्दी आने की कोशिश करना! घर में विवाह का माहौल है और देर हुयी तो तुम्हारे पिताजी अन्यथा नाराज होंगे। पर अकेले मत जाओ। चिंटू को साथ ले लो! वह गाड़ी अच्छा चलाता है।“- माँ ने सहमति जताई।
“ठीक है माँ!”- बोलकर मैंने चिंटू को आव़ाज लगायी और उसे गैरेज से गाड़ी निकालने को कह दिया।
मैंने एक छोटे से बैग में कुछ कपड़े रखे और गाड़ी में आकर बैठ गया। चिंटू ने गाड़ी चालू किया और थोड़ी ही देर बाद हम राष्ट्रीय मार्ग पर आ गये। मैंने आँखें बंद कर ली तो पाया राजेश और सुमन का चेहरा मेरे आगे पीछे घूमने लगा और तीन वर्ष पहले की घटी घटना याद हो आयी।
लगभग तीन वर्ष पूर्व होली की छुट्टियों में मैं माँ के साथ कानपुर आया था। पिताजी लगभग हर वर्ष होली और दीपावली परिवार के साथ कानपुर में ही मनाया करते थे। उनका मानना था की त्योंहारों का असली आनंद संयुक्त परिवार के साथ ही आता है किंतु इस बार किसी काम की वजह से उन्हें दिल्ली में ही रुकना पड़ गया था, इसलिये केवल माँ और मैं ही कानपुर आ पाये थे। होली के पाँच दिनों बाद ही स्नातक तृतीय वर्ष की परीक्षायें आरम्भ होने वाली थीं। चूँकि दादी जी की तबियत थोड़ी खराब थी, इस वजह से वापिस लौटने का टिकट केवल मेरा हुआ था। गोरखधाम एक्सप्रेस की स्लीपर क्लास। होली के अगले दिन की टिकट थी, और कानपुर सेंट्रल से गोरखधाम एक्सप्रेस के चलने का समय रात्रि के ११:२३ पर था, पर दुर्भाग्य से ट्रेन लेट थी। प्रतीक्षा करते-करते अंततः ट्रेन अगले दिन सुबह के सात बजे पहुँची। झक मार कर मैं अपनी कोच में चढ़ गया। आश्चर्य यह था कि ज्यादे भीड़ नहीं थी, कारण शायद होली का अगला दिन ही होना रहा होगा। मेरे कम्पार्टमेंट में मेरे अलावा केवल चार लोग ही थे। एक तरफ़ की सीट पर कोई पैसठ वर्ष का वृद्ध लेटा हुआ था और उसके पैरों की तरफ़ एक लड़की लगभग १९-२० वर्ष की बैठी हुयी थी। मेरे सीट के पास दो लड़के, जिसमें से एक लगभग १३-१४ वर्ष का और एक या तो मेरा हमउम्र था या फिर मुझसे थोड़ा बड़ा। मुझे लगा सब एक ही परिवार के होंगे। मैं दूसरी ओर खिड़की के पास वाली सीट पर जाकर बैठ गया। पंद्रह मिनट बाद ट्रेन सरकना शुरू की। और मैं अपनी क़िताब खोल कर पढ़ने लगा, परीक्षा जो देना था।
अचानक थोड़ी देर बाद ही वह वृद्ध आदमी जोर-जोर से खाँसने लगा। मेरा ध्यान किताबों से हटकर उसकी ओर गया। खाँसते-खाँसते वह उठकर बैठ गया। लड़की कड़ी होकर उनकी पीठ सहलाने लगी। मैंने अपना पानी का बोतल उठाया और उनकी ओर बढ़ा दिया।
“उन्हें ठंडा पानी नुकसान करेगा! दमे की बीमारी है।”- दूसरी ओर बैठे मेरी हमउम्र लड़के ने बोतल अपने हाथ में पकड़ते हुये कहा।
मैं हैरान होकर उसकी ओर देखने लगा। मुझे उसका बोतल अपने हाथ में ले लेना पसंद नहीं आया।
“माफ़ कीजियेगा! मैं अनायास ही बोल पड़ा था। मुझे राजेश कहते हैं।”- लड़के ने परिचय देते हुये अपना हाथ मेरी ओर बढ़ाया।
“किशोर!”- मैंने हाथ मिलाते हुये अपना परिचय दिया। और पूछा-
“क्या आप सब परिवार सहित दिल्ली जा रहे हैं?”
राजेश मेरे प्रश्न पर मुस्कराते हुये उत्तर दिया-“किशोर जी! हम सब दिल्ली जा रहे हैं, पर हम एक परिवार के सदस्य नहीं हैं! मैं लखनऊ से ट्रेन में चढ़ा और सुमन जी अपने छोटे भाई विवेक और दादा जी के साथ गोरखपुर से आ रहे हैं! बस ट्रेन में ही परिचय हुआ है।”
“क्षमा चाहता हूँ! मुझे लगा था कि आप सब एक ही परिवार के सदस्य हैं!”- मैं झेंपते हुये बोला।
“इसमें झेंपने वाली कोई बात नहीं! वैसे भी सफ़र में सब एक ही परिवार के सदस्य बन जाते हैं। रात भर दादा जी खाँसते रहे हैं। पूरी रात जागकर राजेश जी ने जो मदद की है वैसा आजकल तो कोई अपना सगा भी नहीं करता।”- यह सुमन की आव़ाज थी।
“मैंने इतना भी कुछ नहीं किया सुमन जी, जितनी आप मेरी तारीफ़ कर रहे हैं। वैसे भी इंसानियत का रिश्ता सारे रिश्तों से बढ़कर होता है।”- राजेश ने अपनी बात रखी और मुड़कर मेरी ओर देखते हुये पूछा-
“किशोर जी! आप भी दिल्ली जा रहे हैं क्या? क्या करते हैं आप?”
“मुझे आप केवल किशोर ही कहकर पुकारिये! दिल्ली विश्वविद्यालय में स्नातक तृतीय वर्ष का छात्र हूँ! कुछ दिनों बाद ही मेरी परीक्षायें आरम्भ होने वाली हैं।”- मैंने बस इतना ही उत्तर दिया।
“भाई! बुरा मत मानना! इसीलिये शायद रेल चलते ही तुमनें पुस्तक खोल कर पढना शुरू कर दिया था।”- राजेश के चेहरे पर मुस्कराहट खिली हुयी थी। उसने कहना जारी रखा-
“वैसे मैं एक सॉफ्टवेयर इंजिनियर हूँ और लगभग एक वर्ष से दिल्ली में ही एक कंपनी में नौकरी करता हूँ।”
राजेश काफ़ी बातूनी था और हंसमुख भी! उसके बात करने का सिलसिला अपने-आप चलता ही जा रहा था। और सुमन हम दोनों की बातें सुनकर केवल मुस्करा रही थी। लगभग एक घंटे बाद मैं पुनः अपने पुस्तकों में खोया हुआ था। परीक्षा का डर सता रहा था। परीक्षा के डर से से कहीं अधिक पिताजी का डर था, जिनके लिये परीक्षा में फर्स्ट डिवीज़न से नीचे कोई भी अंक लाना एक जघन्य अपराध के बराबर था। पूरे वर्ष मेरी पढ़ाई के संबंध में वह कभी भी कुछ भी नहीं पूछते थे, किंतु परीक्षाफल के बारे में पूछना वह कभी भी नहीं भूलते थे।
“अच्छा किशोर! तुम्हारा ऐम्स में कोई परिचय है क्या?”- राजेश के इस प्रश्न पर मैं किताबों की दुनिया से फिर बाहर आया।
“नहीं! मेरा किसी से व्यक्तिगत् परिचय नहीं है। शायद पिताजी का हो! पर आप यह क्यों पूछ रहें हैं?”- मैंने भी प्रश्न कर ही डाला।
राजेश मेरे प्रश्न पर पहले मुस्कराया फिर अबिलंब बोला- “सुमन जी से बात करने के दौरान ही मुझे पता चला कि उनके दादाजी के फेफड़ों में संक्रमण है और इसी के ईलाज के लिये वह दिल्ली जा रहीं हैं! मुझे लगा शायद आपका कोई परिचय निकल आये तो उनकी थोड़ी मदद हो जायेगी।”
मुझे लगा कि राजेश कहीं न कहीं सुमन के बात-व्यवहार से आकर्षित ज़रूर हुआ है। वैसे सुमन देखनें में सुन्दर तो थी ही और उसके चेहरे से गंभीरता भी झलक रही थी। और यदि बचपन से पिताजी का मेरे ऊपर इतना खौफ़ नहीं रहा होता तो शायद मैं भी सुमन की ओर आकर्षित हुये बिना नही रह पाया होता।
“यह संक्रमण कब और कैसे शुरू हुआ?”- मैंने सुमन से मुख़ातिब होकर पूछा।
सुमन ने एक ठंडी आह भरी और थोड़ी देर सोचते हुये बोली-“ बढ़ती उम्र और बढ़ती ज़िम्मेदारियों का बोझ! इसके अलावा कभी कोई और कारण नहीं रहा।”
सुमन के उत्तर से कम्पार्टमेंट का माहौल थोडा गंभीर हो उठा। मेरा और कोई प्रश्न करे का साहस नहीं हुआ। किसी के पारिवारिक जीवन में दखलंदाजी का मेरा कोई ईरादा भी नहीं था। वैसे भी मेरे मन पर परीक्षा का डर भी हावी था। इन्हीं सब के बीच ट्रेन इटावा जंक्शन रेलवे स्टेशन पार कर चुकी थी। मैंने पुनः अपनी पुस्तकें खोल लीं। सुमन उठकर दरवाज़े की ओर बढ़ चली।
थोड़ी देर बादक मैंने एक ज़ोर की चीख सुनी। मैनें प्रश्नात्मक लहज़े में राजेश की ओर देखा। वह भी उतना ही चौंक पड़ा था जितना की मैं!
“शायद सुमन” इतना कहकर राजेश गेट की ओर दौड़ा। उसके पीछे-पीछे मैं भी दौड़ पड़ा।
मैंने देखा कि गेट के पास ही सुमन बेसुध पड़ी हुयी थी और उसके सर से खून बहकर नीचे पसरा हुआ था, और उसके बगल में एक पत्थर का टुकड़ा पड़ा हुआ था। राजेश उसके सर के पीछे लगे घाव को एक हाथ से दबाये हुये था और दुसरे हाथ से उसे उठाने की कोशिश कर रहा था। मैं हक्का-बक्का सा खड़ा केवल देख रहा था।
“किशोर! यहाँ आओ! मैं अकेले इसे नहीं उठा सकता।”- मुझे देख राजेश ने पुकारा।
हम दोनों उसे उठाकर अपने बर्थ के पास ले आये और दूसरी ओर के बर्थ पर लिटा दिया। राजेश अभी भी हाथ से घाव दबाये हुये था, फिर भी खून रिस-रिस कर बह रहा था।
“अरे! यह क्या हो गया सुमन को?”-सुमन के दादाजी खून में लथपथ अपनी बेहोश पोती को देखकर जो-ज़ोर से रोने लगे। विवेक ने भी रोना शुरू कर दिया था।
इस तरह की स्थिति से मेरा पहले कभी पाला नहीं पड़ा था। बस मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो कभी राजेश, कभी सुमन, कभी दादाजी तो कभी विवेक को देखता रहा।
“किशोर! सिर से खून बहना बंद नहीं हो रहा! जरा टी.टी.ई. को बुला लाओ, शायद उसके पास किसी डॉक्टर की डिटेल्स हो!”- राजेश पूरा घबराया हुआ था।
मैं एक बोगी से दुसरे, दुसरे से तीसरे टी.टी.ई. को खोजता फिर रहा था। अंततः वह मुझे छठवीं बोगी में दिखा। मैंने उसे साड़ी बातें जल्दी से बतायीं। वह भी परेशान हो उठा और अपनी लिस्ट देखने लगा। दसवें नंबर की कोच में बर्थ संख्या ११ पर उसे एक डॉक्टर का नाम दिखा। अगले पाँच मिनट के भीतर मैं, टी.टी.ई. और डॉक्टर सुमन के पास पहुँच चुके थे।
“चोट कैसे लगी?”- डॉक्टर ने पूछा।
“पता नहीं डॉक्टर साहब! हम लोगों को सुमन जी की चीख़ सुनायी दी थी! जब देखा तो वह बेसुध होकर गेट के पास गिरी हुयीं थी और इनके सिर से ढेर सारा खून बह रहा था।”- राजेश ने पूरी घटना सुना दी।
डॉक्टर ने घाव की जाँच-पड़ताल की और घाव के पास के बालों को काटकर रूई से खून साफ कर बीटाडीन लगा दिया। खून का रुकना जब बंद हो गया तो घाव पर टाँके लगाने लगे। उस पर दवा लगाकर उन्होंने मरहम-पट्टी भी कर दिया और कोई एक इंजेक्शन सुमन को लगाया। सुमन को अभी भी होश नहीं आया था। विवेक रो रहा था और दादाजी डॉक्टर साहब को कृतज्ञता से देख रहे थे।
“इनका ढेर सारा खून बह चुका है। होश में आते ही गुनगुना पानी पीने को दीजियेऔर जितनी भी जल्दी हो सके इन्हें किसी अस्पताल में एडमिट करिये!”- डॉक्टर ने सुमन के चेहरे पर पानी की कुछ छीटें मारते हुये कहा और सुमन के नाक और होंठ के बीच के स्थान पर ऊँगली से खूब ज़ोर से दबाया। सुमन ने अपनी आँखें खोल दी।
“सुमन! सुमन! तुम्हें चोट कैसे लगी?”- राजेश से रहा नहीं गया।
सुमन ने धीरे-धीरे सिर घुमाया और राजेश को देखकर कराहते हुये बोली- “मैं सिंक के पास अपना चेहरा धुल रही थी कि अचानक कुछ मेरे सिर पर आकर बड़ी ज़ोर से लगा। और उसके बाद...!” सुमन फिर से बेहोश हो गयी थी।
“सुमन को जहाँ चोट लगा वहीँ नीचे एक पत्थर का टुकड़ा भी पड़ा हुआ था।“- मैंने अपनी देखी बात बता दी।
“आजकल कुछ बच्चे खेल-खेल में ट्रेन पर पत्थर फेंकतें हैं, जब भी ट्रेन उनके पास से गुजरता है! यह वही पत्थर रहा होगा।“- टी.टी.ई. ने अपनी राय दी।
“अब इन सब बातों का कोई भी अर्थ नहीं! ऐज सून ऐज पॉसिबल, प्लीज एडमिट हर इन हॉस्पिटल! मैटर इस वेरी सीरियस।”- डॉक्टर की बात सुनकर दादा जी फिर से बिलखने लगे।
“लेकिन डॉक्टर साहब! अब बीच में कोई भी ऐसी जगह नहीं है जहाँ कोई बड़ा अस्पताल हो! अगला स्टेशन अलीगढ़ आयेगा! तब तक इंतजार ही करना होगा। मैं वहाँ स्टेशन मास्टर को सूचित कर देता हूँ। वह एम्बुलेंस बुलाकर तैयार रहेंगे।”- टी.टी.ई. ने अपना सुझाव दिया।
राजेश ने उनकी बात पर सहमति जतायी। मुझे यह समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ? बस दादाजी को रोते हुये देखता रहा। लगभग पैंतालिस मिनट बाद ट्रेन अलीगढ़ पहुँची। टी.टी.ई. और राजेश ने मिलकर सुमन को नीचे उतारा। साथ में दादाजी और विवेक सामान लेकर नीचे उतर गये। मैं भी उनके पीछे-पीछे उतरा। प्लेटफ़ॉर्म पर ही एम्बुलेंस स्टाफ़ स्ट्रेचर लेकर खड़े थे। उन्होंने सुमन को स्ट्रेचर पर लिटाया और उसे लेकर स्टेशन से बाहर जाने लगे।
“अगर मेरी परीक्षा नहीं होती तो मैं भी आप लोगों के साथ चलता।”- मैंने राजेश से कहा।
“कोई बात नहीं किशोर! मैं समझ सकता हूँ।”- कहकर राजेश हाथ मिलाकर एम्बुलेंस स्टाफ़ के पीछे चला गया।
“भैया! चाय पियेंगे?”- चिंटू की आव़ाज सुनकर चौंकते हुये मैं वर्तमान में वापिस आया। मैंने सहमति में अपना सिर हिलाया। चिंटू ने बायीं तरफ़ एक ढ़ाबे के सामने गाड़ी खड़ी कर दी।
“अभी और कितना समय लगेगा चिंटू?”- मैंने पूछा।
“यही कोई एक-सवा एक घंटा और लगेगा भैया।”- चिंटू ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया।
चाय पीकर हम दोनों गाड़ी में बैठ गये और चिंटू ने गाड़ी चलाना शुरू कर दिया।
इस घटना के बाद मेरी और राजेश की लगभग एक साल तक कभी कोई मुलाक़ात नहीं हुयी। होती भी कैसे? उस घटना की आपाधापी में न तो मैंने राजेश को अपना पता और मोबाइल नंबर दिया था, और न ही उससे उसका पूछा था। मेरे जीवन में सब कुछ पहले की तरह बंधे-बंधाये ढ़र्रे पर चलता चला ही जा रहा था। इसी बीच मैंने अपना स्नातक पूर्ण कर लिया था और अपनी ईच्छा के विरुद्ध पिताजी के दबाव के चलते एम.बी.ए. छोड़कर किसी ख़ास विषय से परास्नातक कर रहा था। न जाने मेरे अंदर का डर और पिताजी का खौफ कब कम होने वाला था। किसी एक विशेष दिन पिताजी ने मुझे कुछ सामान लेकर शर्मा अंकल के घर पहुँचाने का आदेश सुना दिया। मेरा उस दिन अपने कुछ सहपाठियों के साथ फ़िल्म देखने जाने का प्रोग्राम था, टिकट भि९ बुक किये जा चुके थे। पर पिताजी तो पिताजी ही ठहरे, उनका आदेश पूरे घरवालों के लिये पत्थर की लकीर था, जिसे कोई भी नहीं मिटा सकता था। हार कर मुझे भी जाना ही पड़ा। शर्मा अंकल उस समय दिल्ली कैंट क्षेत्र में रहा करते थे। मैंने सारा सामन बैग में रखकर पीठ पर टांग लिया और सिविल लाइन्स मेट्रो स्टेशन की ओर बढ़ चला जिओ कि पास में ही था। नई दिल्ली मेट्रो स्टेशन से एयरपोर्ट एक्सप्रेस लाइन पकड़कर पहले धौला कुआं जाना था फिर वह बस से दिल्ली कैंट। कुल मिलाकर पूरे दिन का कबाड़ा होना ही था।
खैर मैंने एयरपोर्ट एक्सप्रेस लाइन पकड़ी और एक खाली सीट पर आकर बैठ गया। तभी मुझे अपने कंधे पर किसी का हाथ महसूस हुआ। मैंने पीछे मुड़कर देखा तो एक लड़का और लड़की मेरे पीछे वाली सीट पर बैठे थे। कुछ जाना-पहचाना चेहरा था।
“किशोर! लगता है तुमने हम लोगों को पहचाना नहीं!”- लड़का मुस्कराते हुये बोला। मुझे और भी आश्चर्य में देखकर वह फिर कहने लगा- “मैं राजेश! कुछ याद आया। पिछले वर्ष हमारी ट्रेन में मुलाक़ात हुयी थी कानपुर में!”
“अरे हाँ! अब मुझे याद आया। आपने दाढ़ी बढ़ा ली है शायद इसी कारण आपको पहचान नहीं सका। और आप शायद सुमन जी हैं?”- मैंने लड़की की तरफ़ मुख़ातिब होकर बोला।
लड़की हौले से मुस्कराई और बोली- “जी हाँ किशोर जी! आपने बिल्कुल ठीक पहचाना! मैं सुमन ही हूँ!”
ऐसा नहीं था की राजेश और सुमन से मेरी पहली मुलाक़ात में कोई ख़ास घनिष्ठता हो गयी थी, पर लगभग एक वर्ष उपरांत मिलने पर न जाने क्यों मन को अच्छा लगा।
“आप लोगों से दुबारा मिलकर मुझे बहुत ख़ुशी हुयी! पर एक बात मुझे समझ में नहीं आया। उस दिन आप लोगों ने कहा था कि आपके बीच कोई भी संबंध नहीं है, फिर आज आप दोनों साथ में कैसे?”- प्रश्न पूछने के बाद मुझे ख़ुद पर बड़ी झेंप महसूस हुयी।
पर दोनों मेरे इस प्रश्न पर मुस्करा उठे। राजेश पीछे की सीट से उठकर मेरे बगल वाली सीट पर आकर बैठ गया। और कहने लगा- “यार किशोर! तुम अब भी झेंपते हो? बात यह है कि उस दिन जब हम सुमन को लेकर अलीगढ़ में अस्पताल पहुँचे तब तक इनका बहुत सारा खून भ चुका था। ‘ओ नेगेटिव’ ब्लड ग्रुप था, जो कि बहुत रेयर होने के साथ-साथ उस दिन अस्पताल में भी उपलब्ध नहीं था। हम लोग परेशान हो उठे थे। अब इसे ईश्वर का लिखा कह सकते हो कि मैंने पहली बार अपना ब्लड ग्रुप चैक करवाया तो पाया कि मेरा भी वही ब्लड ग्रुप था जो कि सुमन का था। हम सब तीन दिन अलीगढ़ में ही रहे। वापिस दिल्ली सब साथ में ही आये। मैंने दादाजी से अपने फ्लैट पर रुकने का आग्रह किया तो वह मन नहीं कर सके। वहीँ से उनका ईलाज ऐम्स में हुआ। दिल्ली से वापिस जाने के बाद भी सुमन से मेरी बातें फ़ोन पर होती रहीं और कुछ ही समय बाद लगने लगा कि हम दोनों का साथ ही एक-दुसरे को पूर्ण कर सकता है।”
“फाइनली आप दोनों का रिश्ता बन ही गया। मैं आप दोनों के लिये बहुत ख़ुश हूँ! आपके घरवालों ने मंजूरी दे दी?”- राजेश की बात काटकर मैं तपाक से बोल उठा।
राजेश को शांत देखकर सुमन बोली- “किशोरे जी! हम दोनों के लिये सबसे बड़ी समस्या थे दादाजी! माता-पिता का देहांत कम उम्र में हो जाने के कारण दादाजी ने ही हम भाई-बहनों को पाल-पोस कर बड़ा किया था। लगभग छः वर्ष पूर्व दादी भी छोड़ कर स्वर्ग सिधार गयीं। तबसे दादाजी का स्वास्थ्य लगातार गिरता ही रहा। इसीलिये मैंने निर्णय लिया था कि दादाजी के रहने तक या तो मैं विवाह नहीं करूँगी या फिर उसी जगह विवाह करुँगी जहाँ मैं दादाजी के पास रह कर उनकी देखभाल कर सकूँ!”
थोड़ी देर के लिये ख़ामोशी छायी रही। शिवाजी मेट्रो स्टेशन आ चुका था, पर मैंने धौला कुआं न उतरने का निश्चय किया। सोचा दूसरी तरफ़ से लौटते समय उतर जाऊँगा। अन्यथा आज की बातें अधूरी रह जाती।
“शुरूआत में मेरी माताजी को इस विवाह से आपत्ति थी। क्योंकि दादाजी के रहते सुमन गोरखपुर मेडिकल कॉलिज में नर्स की नौकरी छोड़कर आने को तैयार नहीं थी। लेकिन सुमन से मिलने के उपरांत उसकी भावनाओं को समझते हुये अंततः उन्होंने भी मंजूरी दे ही दी। पर इसी बीच सुमन के दादाजी का देहांत हो गया, इसी कारण विवाह को एक वर्ष के लिये टालना पड़ गया। अब अगले वर्ष मार्च की उन्नीस की तिथि निश्चित की गयी है। और इतना लंबा समय देखकर सुमन ने दिल्ली के ही किसी अस्पताल में नर्स की नौकरी करने का निर्णय लिया है और अभी सुमन उसी के इंटरव्यू के लिये ही दिल्ली आयी थी। क्योंकि विवेक भी अब सरकारी स्कालरशिप से गोरखपुर के एक सरकारी इंजीनियरिंग कॉलिज में बी.टेक. कर रहा है।”- राजेश ने सुमन की अधूरी बात को पूरा किया।
“दादाजी के बारे में सुनकर दुःख हुआ। आप अभी कहाँ जा रहे हैं?”- मैंने पूछा।
“आज ही की लखनऊ के लिये फ्लाइट है। सोचा माँ से लखनऊ में मिलकर सुमन वापिस गोरखपुर चली जायेगी। भाई किशोर! इस बार अपना मोबाइल नंबर दे दो ताकि हम कॉन्टेक्ट्स में रह सकें! क्योंकि तुम हमारे रिश्ते के शुरू से ही गवाह रहे हो! मैं विवाह का कार्ड भेजूँगा और तुम्हें हर हाल में आना ही होगा।”- राजेश ने अपनी बातें ख़त्म की।
“बिल्कुल!”- इतना कहकर हम दोनों ने अपने मोबाइल नंबर साझा किये और दिल्ली एयरपोर्ट मेट्रो स्टेशन पर उतर गये। दोनों एयरपोर्ट की ओर बढ़ गये और मैं वापिस दुसरे तरफ़ की मेट्रो में धौला कुआं जाने के लिये बैठ गया। कभी सोचा नहीं था कि ट्रेन में एक छोटी सी मुलाक़ात मेरे जीवन की डायरी के अमिट पन्ने बन जायेंगे।
गाड़ी के अचानक रुकने से मैं चौंक उठा।
“क्या हुआ चिंटू? इतनी ज़ोर से क्यों ब्रेक मारा?”
“अचानक से एक गाय दौड़ती हुयी गाड़ी के आगे आ गयी थी।”- चिंटू ने उत्तर दिया।
दोनों ने कार से नीचे उतर कर देखा तो पाया कि ब्रेक लगाते-लगाते भी गाय को आख़िर टक्कर लग ही गयी थी क्योंकि गाड़ी का बंपर एक तरफ़ झूल गया था। गाय दौड़ती हुयी हाईवे से उतारकर बगल के खेतों की ओर चली गयी। चिंटू ने गाड़ी साइड में खड़ी की और डिक्की से टूल बॉक्स निकालकर बंपर ठीक करने लगा।
थोड़ी देर बाद हमारी गाड़ी पुनः सड़क पर दौड़ रही थी। और मैं फिर से बीती कहानी में खो गया।
राजेश और सुमन से मुलाक़ात के बाद हममें थोड़ी घनिष्ठता बढ़ गयी थी और हम फ़ोन से लगातार एक-दूसरे के संपर्क में थे। दो- तीन बार दिल्ली में ही दोनों से समय निकालकर मिला भी, क्योंकि दोनों दिल्ली में सेटल ही हो गये थे। अपनी परास्नातक प्रथम वर्ष के दौरान ही मैंने एस.एस.सी. की परीक्षा दे दी थी और मुझे साक्षात्कार में बुलाये जाने का पूरा भरोसा भी था। राजेश और सुमन का विवाह की तिथि राजेश की माँ के ख़राब स्वास्थ्य के चलते खिसकाकर मार्च की जगह मई में कर दी गयी थी। मार्च माह के पहले सप्ताह में ही एस.एस.सी. परीक्षा का परिणाम आया और अप्रैल माह के दूसरे सप्ताह में मुझे साक्षात्कार के लिये बुलाया गया था। मैंने यह ख़बर मिलकर राजेश और सुमन को दी। दोनों बहुत ही ख़ुश थे उस दिन। और एक अच्छे से होटल में ले जाकर मुझे ट्रीट भी दी थी। चूँकि अप्रैल के तीसरे सप्ताह से मेरी परास्नातक प्रथम वर्ष की परीक्षा शुरू होने वाली थी, इसी कारण पढ़ाई की व्यस्तता के चलते मैं पूरा महीना किताबों में ही खोया रहा।
दो अप्रैल को अचानक सुबह सुमन का फ़ोन आया। उसकी आव़ाज भर्राई हुयी थी। मेरे लाख पूछने पर भी उसने मुझे कुछ नहीं बताया। केवल लखनऊ आने के लिये कहती रही। अंततः पिताजी से पूछकर मैं दोपहर को लखनऊ वाली ट्रेन में बैठ गया। रात में मैं लखनऊ पहुँचा तो फिर डारमेटरी में सो गया।
सुबह नहा-धोकर मैंने सुमन को कॉल किया और उसके कहे अनुसार सीधे संजय गाँधी अस्पताल पहुँच गया। सुमन ने अभी भी फ़ोन पर मुझे कुछ भी नहीं बताया था। एक नर्स से पूछकर निर्धारित वार्ड के एक कमरे में घुसा तो मैंने पाया की सुमन अस्त-व्यस्त सी कुर्सी पर बिखरी पड़ी है और अस्पताल के बेड पर राजेश लेटा हुआ था। ग्लूकोस और न जाने कितने पाइपों के सहारे। मैं जड़ हो गया। इतना हंसमुख इंसान, मिलनसार, जीवंत और दूसरों की बिना कुछ सोचे हमेशा मदद करने वाला राजेश आज मेरे सामने मृतवत पड़ा हुआ था।
“राजेश!”- मेरे मुंह से केवल यही बोल फूट पाये थे और आँखें गीली हो चुकी थीं।
राजेश के शरीर में कोई भी हरकत नहीं हुयी पर सुमन की आँखें खुल गयीं।
“किशोर जी! आइये! आप इधर बैठ जाइये!”- मुझे देखते ही सुमन बोली और अपने कपड़े ठीक करने लगी। ऐसा लगता था जैसे सुमन पूरी पत्थर हो गयी हो। अभी एक महीने पहले ही तो मिला था दोनों से! सुमन की आँखों की चमक बुझ चुकी थी।
“यह सब अचानक...!”- मैं केवल इतना ही पूछ पाया और कुर्सी पर बैठ गया।
“एक सप्ताह पहले ही विवाह का सारा सामान ख़रीदकर दिल्ली से हम दोनों वापिस लौटे थे। अचानक तीन रात पहले राजेश के सिर में तेज दर्द होने लगा। मैंने डिस्प्रिन की गोली दी और बैठ कर उनका सिर दबाने लगी। पर अगले ही दिन से यह सिरदर्द हर पल रहने लगा। कभी-कभी इतना तीव्र की राजेश अर्द्धमूर्छित से हो जाते थे। दो दिन पहले ही अस्पताल में एडमिट कराया गया। सारे टेस्ट होने के बाद कल पता चला कि राजेश को ब्रेन-ट्यूमर है!”- आखिरी शब्द कहते-कहते सुमन रोने लगी थी।
मुझसे कुछ कहते बन नहीं पाया। क्या ईश्वर ने किसी-किसी का जीवन केवल आँसुओं के लिये ही लिखा होता है? बचपन में माँ-बाप को खोने वाली सुमन, एक साल पहले अपने दादाजी को भी खो चुकी थी। और अब जबकि उसे राजेश के रूप में एक अच्छा जीवनसाथी मिल था, जिसके साथ वह भविष्य के स्वप्न संजो रही थी, वह अस्पताल के एक बेड पर लेटा हुआ ब्रेन-ट्यूमर से लड़ रहा था।
“डॉक्टर ने क्या कहा?”
“ट्यूमर ब्रेन में ऐसी जगह है जहाँ पर ऑपरेशन करना बहुत ही कठिन है! बचने का कोई भी चांस नहीं!”- सुमन की आँखों से आँसूं बहते ही जा रहे थे।
“यह तो लखनऊ के डॉक्टर कह रहे हैं! एक बार दिल्ली में दिखाते तो शायद..!”- भावावेश में मैं चीख उठा था।
मेरे चिल्लाने की आवाज पर सुमन शांत होकर बोली- “मैं एम्स में ही नर्स हूँ! डॉक्टर को व्हाट्सएप्प पर रिपोर्ट भेजकर बात की थी मैंने! उनका भी ठीक यही कहना था। ऊपर से राजेश का कहना है कि जो कुछ प[पल बचे हैं जीवन में वह ख़ुशी-ख़ुशी अपनों के साथ जीना चाहते हैं। ऑपरेशन करवाकर उसे तुरंत ही ख़त्म नहीं करना चाहते।”
तभी दरवाज़े पर हल्की सी दस्तक हुयी और एक अधेड़ उम्र की महिला हाथों में एक बैग लिये हुये कमरें में दाख़िल हुयीं। सुमन ने राजेश की माँ से मेरा परिचय करवाया। मैंने उन्हें नमस्ते किया।
“सुमन बेटा! यह गाड़ी की चाभी लो और घर जाकर नहा-धोकर थोड़ी देर आराम कर लो! वैसे भी रात भर यही बैठी रही हो!”- आंटी ने सुमन को गाड़ी की चाभी पकड़ाते हुये कहा।
“चली जाऊँगी माँ! बस एक बार ये होश में आ जाये, बस बात करके चली जाऊँगी।”- सुमन ने उत्तर दिया।
“रात को राजेश के सिर में भयंकर दर्द के कारण वह चीख रहा था, इसीलिये डॉक्टर ने उसे नींद का इंजेक्शन दिया था। अभी थोड़ी देर में होश में आ जायेगा!”- आंटी ने मुझसे कहा।
राजेश के पिताजी नहीं थे! और माँ इंटरमीडिएट कॉलिज में लेक्चरर थीं और वह इस कठिन पल में भी धीर-गंभीर और शांत थी। शायद राजेश के व्यक्तित्व की सहजता उसकी माँ की देन थे।
लगभग पंद्रह मिनट बाद राजेश को होश आया।
“अब सिर दर्द कैसा है बेटा?”- आंटी ने पूछा।
“अभी ठीक है माँ!”- राजेश ने उत्तर दिया। मुझे देखकर उसके चेहरे पर मुस्कान खिल गयी और पूछा- “किशोर! तुम कब आये?”
“आज सुबह ही! सुमन जी ने फ़ोन करके बुलाया था।”- मैंने केवल इतना ही कहा।
“माँ! आप और सुमन घर जाकर आराम करिये! किशोर तो अभी हैं ही यहाँ! और मुझे कुछ बात भी करनी थी।” माँ के न चाहने के बावजूद माँ को सुमन के साथ घर जाना ही पड़ा। अब कमरें में केवल मैं और राजेश ही रह गये।
राजेश जी! यह सब कैसे हो गया?”- प्रश्न पूछ्ते हुये मेरे आँखों से आँसू निकल आये थे।
राजेश ने एक ठंडी आह भरी और बिस्तर पर उठकर बैठने की कोशिश करने लगा। मैंने उसे लेटे रहने को बोला और वह मान गया।
“सब रेखाओं का खेल है किशोर! जीवन में अब खुशियाँ ही खुशियाँ आने वाली थीं, पर अब जीवन ही नहीं रहेगा। अब तो यही लगता है कि मेरे जीवन में उस दिन की ट्रेन वाली यात्रा नहीं होती तो कितना अच्छा हुआ होता! न तुम्हें दिल्ली से भागे-भागे आना पड़ता और न ही सुमन को इस चक्रव्यूह में फँसना पड़ा होता! जिस पल को अपने जाने के बाद कभी देख नहीं पाउँगा, न जाने क्यों उसके बारे में सोचकर मन भर आता है।”- और राजेश की आँखों से आँसुओं की धार बह चली।
मैं पहले बार राजेश को ऐसे टूटते हुये देख रहा था। अचानक से सारे देखे स्वप्न एक ही झटके में बिखर जायें तो केवन स्वप्न ही नहीं टूटता, स्वप्नद्रष्टा भी टूट जाता है।
थोड़ी देर बाद राजेश ने अपने आँसुओं को पोंछा और आगे कहना शुरू किया- “मृत्यु की कल्पना से ही सबका मन भयभीत हो उठता है, किंतु जिनका हाल मेरी तरह है उनका क्या? रह गया है तो केवल आने वाली मृत्यु की प्रतीक्षा मात्र! कभी-कभी सिर में इतना तीव्र दर्द उठता है कि यह प्रतीक्षा करने का भी मन नहीं करता! बस जी चाहता है कि इन सारे जीवन-रक्षक पाइपों को अपने शरीर से उखाड़ फेंकू और एक ही झटके में इस दुनिया से पार हो जाऊं! लेकिन कुछ पल माँ और सुमन के साथ बिता सकूँ, यही एक लालच मुझे मरने भी नहीं देता।”
“अब इस समय आप यह सब क्यों सोच रहे हैं? दुनिया में चमत्कार तो होते ही रहते हैं, क्या आपके केस में ऐसा नहीं हो सकता?”- भरी आँखों और रुँधे गले से मैं केवल इतना ही कह पाया।
ज़बाब में एक फींकी हँसी राजेश के होंठों पर तैर गयी और वह बोला- “चमत्कार केवल किस्से-कहानियों में होता है, वास्तविक जीवन में नहीं। किशोर! तुम्हारी ईच्छा जाने बगैर, तुम्हें एक उत्तरदायित्व सौंप कर जाना चाहता हूँ! कभी-कभी माँ से बातें करना और आ कर मिल लिया करना। मेरे बाद वह दुनिया में बिलकुल अकेली पद जायेंगी। और सुमन को समझा-बुझा कर कहीं और विवाह के लिये मना लेना। जिससे सर्वस्व जुड़ा हो, छोड़ना कठिन होता है। पर तुम्हें यह काम करना ही होगा। वचन दो!”
मृत्युशैया पर पड़े किसी व्यक्ति की आख़िरी ईच्छा को मैं कैसे इनकार कर देता? मैंने सहमति में सिर हिलाया। और राजेश के चेहरे पर संतुष्टि के भाव पसर गये। तभी डॉक्टर ने नर्स के साथ कमरें में प्रवेश किया। सामनें वाली मेज से फ़ाइल उठाकर पढ़ने लगा और राजेश की ओर मुड़कर पूछा-
“राजेश! अब सिर दर्द कैसा है?”
राजेश के चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया न पाकर डॉक्टर ने उसकी नब्ज़ चैक की। अपनी आदत के अनुसार राजेश चेहरे पर संतुष्टि का भाव लिये इहलोक से विदा ले चुका था।
मैंने फ़ोन करके सुमन और आंटी को बुलाया। दोनों का रोना देख सबके हृदय चीत्कार रहे थे।
अंत्येष्टि संस्कार से लौटने के उपरांत मैं राजेश के घर इजाज़त लेने पहुँचा।
“बेटा! एक-दो दिन थोडा ठहर जाते! तुम्हें देख राजेश के आसपास होने का भ्रम होता है!”- आंटी रोते हुये बोलीं।
“नहीं माँ! किशोर जी को जाने दीजिये! उनकी नौकरी का साक्षात्कार है! उन्हें सफल होना है! आपके बेटे की भी यही ईच्छा थी! मैं आपके पास तो हूँ ही!”- यह सुमन की आवाज़ थी। इतना कुछ खोकर भी वह जो बचा था उसे संभालने की कोशिश कर रही थी।
मैं भरी मन से दिल्ली लौट आया। जबकि सबका चेहरा मेरे और मेरी नींद के बीच टकराते रहे। न पिताजी ने कुछ पूछा और न ही मैंने किसी को कुछ बताया।
एस.एस.सी. के साक्षात्कार में मैं सफल रहा और अंतिम रूप से इनकम टैक्स इंस्पेक्टर के पद पर मेरा चयन हुआ। अपने परास्नातक प्रथम वर्ष की परीक्षा के बाद मैं पुनः लखनऊ गया। सुमन ने राजेश की साड़ी जिम्मेदारी ओढ़ ली थी और उस घर में उसकी कमीं को पूरा करने का भरसक प्रयास कर रही थी। जब मैंने उससे राजेश की आख़िरी ईच्छा के बारे में बताया तो सुमन ने उत्तर दिया-
“उनकीं ईच्छा-अनिच्छा दोनों उनके साथ ही चली गयी। किसी और से विवाह के बारे में मैं सोच भी नहीं सकती। केवल माँग में सिन्दूर भर देने से ही विवाह होता है? मन से मन के विवाह का कोई मोल नहीं? मैं मन से विवाहिता थी और अब मैं इस वैधव्यजीवन को स्वीकार कर चुकी हूँ। इस घर में उनकी समस्त जिम्मेदारियाँ अब मेरी धरोहर हैं।”
अब आगे कुछ कहने के लिये बाकी रह ही नहीं गया था। आंटी ने भी सुमन को बहुत समझाने की कोशिश की थी किंतु सुमन ने अपना अंतिम निर्णय ले लिया था। मैं वहाँ एक दिन रूककर वापिस दिल्ली लौट आया। सितम्बर महीने में मेरा ज्वाइनिंग लेटर आया और समयानुसार १ अक्टूबर को मुंबई पहुँचकर मैंने नौकरी ज्वाइन कर ली।
“भैया! अब किधर जाना है?”- मुझे चिंटू की आव़ाज सुनायी दी। हम लोग लखनऊ पहुँच चुके थे। मैं चिंटू को राजेश के घर का रात बताने लगा।
लगभग दस महीने पहलें मैं इन्हीं गलियों से आया था। और नौकरी की व्यस्तता के चलते इधर कई महीनों से न तो आंटी से और न ही सुमन से मेरी कोई बात हो पायी थी। थोड़ी ही देर में हमारी गाड़ी राजेश के घर के सामने खड़ी थी। घर के आगे थोड़ी भीड़ जमा थी। विवेक की नज़र मेरे ऊपर पड़ी तो उसने पास आकर नमस्ते किया। राजेश का सुमन और विवेक को छोड़कर, कोई नजदीकी रिश्तेदार नहीं था। इसलिये वहाँ केवल पड़ोसी और आंटी के विद्यालय के शिक्षक ही थे। मैनें चरों ओर निगाहें दौड़ाई लेकिन सुमन कहीं भी नज़र नहीं आयी।
अंतिम यात्रा से लौटने के पश्चात् मैंने विवेक से सुमन के बारे में पुछा। विवेक मेरे प्रश्न पर आश्चर्य करते हुये बोला- “क्या आप को कुछ भी नहीं पता है?”
मेरे न में सिर हिलाने पर विवेक ने बताना शुरू किया- “राजेश जी के जाने के पश्चात दीदी यहीं रहनें लगीं थीं। और यहीं लखनऊ में ही एक प्राइवेट अस्पताल में नौकरी ज्वाइन कर लीं थी। धीरे- धीरे सब कुछ ढ़र्रे पर आ रहा था कि अचानक एक दिन रात में दीदी के पेट में दर्द उठा। जब डॉक्टर के कहे अनुसार अल्ट्रासाउंड कराया गया तो पता चला कि उनके अंदर डेढ़ महीने का गर्भ पल रहा था।“
मैं चुपचाप विवेक की बातें सुनता रहा।
“दीदी ने किसी को भी नहीं बताया, यहाँ तक कि राजेश जी की माँ को भी नहीं! जब दो-तीन महीनों बाद शरीर से पता चलने लगा तब माँ ने पूछा। माँ दीदी को उनकी उम्र, समाज और अविवाहित होनें का हवाला देते हुये कुछ कड़े कदम उठाने को समझाती रहीं। पर दीदी का कहना था कि राजेश जी की केवल यही एक निशानी उनके पास है और वह उस बच्चे को दुनिया में लाना चाहती हैं। समाज से बात आख़िर कब तक छुपी रह सकती है? अस्पताल में तरह-तरह की बातें सुनकर दीदी ने वहाँ से इस्तीफ़ा दे दिया। माँ जी को भी अपने स्कूल और पड़ोसियों से बहुत कुछ सुनने को मिला। पर दीदी की ज़िद और अपने दिवंगत पुत्र की संतान को देखने की चाहत में वह सब कुछ सहती चली गयीं।”
“सुमन जी अभी कहाँ हैं?”- मैं अपनी उत्सुकता को रोक नहीं पा रहा था और विवेक की पूरी बात सुने बिना ही तपाक से बोल पड़ा।
विवेक ने फिर से कहना शुरू किया-“ पिछले वर्ष दिसंबर के पहले सप्ताह में बाज़ार से वापिस आते समय, तथाकथित समाज के कुछ ठेकेदारों ने दीदी को रोककर उनकी पिटाई शुरू कर दी। बाद में उन्हें सड़क पर बेहोश पड़ा देखकर एक भलेमानस ने उन्हें अस्पताल पहुँचाया। ऑपरेशन करना पड़ा। गहरी चोट की वजह से बच्चा कोख़ में ही गान गवां बैठा था। होश में आने पर दीदी बच्चा खोनें का दुःख बर्दाश्त नहीं कर सकीं और पागल सी हो गयीं। एक-दो महीनें उनका इलाज़ अस्पताल में ही चला, लेकिन उनकी दिमाग़ी हालत में कोई भी सुधर नहीं आने के कारण उन्हें आगरा के पागलखाने भेज दिया गया।”
“क्या?”- मैं चीख़ पड़ा था। इतनी बात हो गयी और मुझे कुछ पता भी नहीं! “अभी भी वह पागलखाने में हीं हैं?”
“नहीं! दो महीने पहले मुझे और माँ जी को फ़ोन आया था। दीदी किसी तरह पागलखाने से भाग निकली थीं। बीस-पच्चीस दिन पहले माँ जी ने दीदी को लखनऊ में देखा था। एक पागल लड़की उस अस्पताल के बाहर मंडरा रही थी, जहाँ राजेश जी अंतिम सांस लिये थे। गली के कुछ बच्चे उसे पत्थर फेंक-फेंक कर मार रहे थे। माँ जी को अंदेशा हुआ। नजदीक जाकर देखा तो वह सुमन दीदी निकली। कुछ लोगों की सहायता से माँ जी ने उन्हें पकड़कर अस्पताल में भर्ती कराया। पर एक सप्ताह पहले वह पुनः अस्पताल से भाग निकलीं और न जाने अब कहाँ हैं!”- विवेक रोने लगा था।
तभी मेरा मोबाइल फ़ोन बजा। देखा तो माँ का फ़ोन था।
“किशोर! अब जल्दी घर आ जाओ! तुम्हारे पिताजी तुम्हारे बारे में पूछ रहे थे!”
“ठीक हैं माँ!”- कहकर मैंने फ़ोन काट दिया।
मैंने विवेक को अपने घर का पता दिया और उसे अपने विवाह में आने के लिये बोलकर कानपुर के लिये निकल पड़ा।
रास्ते में एक पागल लड़की को कुछ बच्चे दौड़ा रहे थे। मैंने चिंटू से गाड़ी रोकने को कहा। वह सुमन नहीं थी। मन में बहुत कुछ टूट गया था। अपने समाज और इसके रीति-रिवाजों पर खून खौल रहा था। यदि सुमन को उसका बच्चा मिल गया होता, तो शायद आज उस बच्चे के साथ सुमन और आंटी भी होतीं। सुमन से ऐसा कौन सा अनैतिक कृत्य कर दिया था? उसका विवाह राजेश से होने वाला था और शायद हो भी चुका होता यदि विवाह की तिथि खिसकायी न गयी होती। in सबके बीच राजेश को दिया हुआ वचन और अपनी भूमिका को मैं तौल रहा था। यदि समय-समय पर मैंने सब जानने की कोशिश की होती तो शायद यह नहीं हुआ होता। क्या अब भी कुछ किया जा सकता है? मन में एक विचार आया। मैंने गाड़ी रुकवाई। विवेक को फ़ोन करके सुमन की कुछ तस्वीर भेजने के लिये बोला। फ़ोटो लेकर मैं एस.एस.पी. कार्यालय पहुँचा। संयोग से एस.एस.पी. साहब कार्यालय में ही थे। मैंने उन्हें पूरी कहानी सुनायी और उन्होंने फ़ोटो की प्रिंट निकलवा लिया। मैंने उनसे प्रार्थना किया कि सुमन का नाम गुमशुदा व्यक्ति की सूची में अंकित किया जाये और जब भी पुलिस को वह मिलें, मुझे तत्काल सूचित किया जाये ताकि मैं उसे अपने साथ ले जा सकूँ। राजेश की आख़िरी ईच्छा मैं तब नहीं पूरा कर सका, पर यदि किस्मत ने साथ दिया तो अब ज़रूर करूँगा।
रात साधे दस बजे मैं वापिस कानपुर अपने पैतृक घर पहुँचा तो मैंने पाया कि पिताजी बरामदे में ही बैठे हुये थे।
मुझे देखते ही वह आगबबुला होकर बोले- “तुम्हें अक्ल कब आयेगा? घर में विवाह का माहौल है और शास्त्रों का मखौल उड़ाते हुये तुम अंत्येष्टि संस्कार में सम्मिलित होने चले गये। क्या तुम्हें नहीं पता था कि समाज के रीति-रिवाज के अनुसार ऐसे समय दुल्हे को ऐसी जहाँ नहीं जाना चाहिये। किसी और को भेज दिया होता!”
“भाड़ में गया आपका समाज और उसके रीति-रिवाज!”- यह मेरी ही आव़ाज थी। जिसने कभी पिताजी के सामने ठीक से खड़े होनें की हिम्मत नहीं की, आज समाज के रीति-रिवाज के नाम पर चिल्ला रहा था।
पिताजी सन्न रह गये और धप्प से कुर्सी पर बैठ गये। इस क्षण की कल्पना उन्होंने कभी भी नहीं की थी। माँ मेरी चीख सुनकर दौड़ी-दौड़ी बरामदे में आयीं। उनकी समझ में कुछ भी नहीं आया। वह बस पिताजी को देखती रह गयीं।
“माँ! मैं आज रात ही दिल्ली जा रहा हूँ! मुझे जयश्री से कल मिलना है! परसों तक लौट आऊँगा। मुझसे कुछ भी पूछना मत! मैं समझा नहीं पाउँगा!”- और बिना माँ का उत्तर सुने चिंटू के साथ मैं रेलवे स्टेशन चला गया।
मैंने टिकट काउंटर से टिकट ख़रीदा। चिंटू वहीँ से घर को लौट गया। काफ़ी देर प्रतीक्षा करने के बाद एक ट्रेन आयी। गोरखधाम एक्सप्रेस!  मैं फ़टाफ़ट दौड़ कर स्लीपर में घुस गया। टी.टी.ई. से बात करके एक सीट पर बैठ गया। कभी इसी ट्रेन में कुछ साल पहले एक कहानी की शुरुआत हुयी थी। नहीं! मैं अपना विवाह तोड़ने नहीं जा रहा था। मुझे जयश्री को पूरी कहानी सुनानी थी। जिस प्रेम को मैंने इतने क़रीब से देखा था, यदि उसके लिये मैं कुछ भी नहीं कर सका तो शायद मैं और जयश्री जिस पवित्र बंधन में बंधने जा रहे थे, उसमें कभी प्रेम नहीं पनप पाता। मुझे जयश्री से केवल इतना ही सहयोग चाहिये था कि सुमन के मिल जाने पर हम उसे अपने पास रख सकें और उसका इलाज़ कराकर उसे सामान्य कर सकें। वैसे भी प्रेम के टूटे का इलाज़ केवल प्रेम ही होता है। क्या पता...ठीक होने पर उसे किसी और रूप में राजेश मिल जाये।
---XXXXXXX---
-अमर कुशवाहा
०६॰०९॰२०१८