Thursday, September 20, 2018

शहरी मजदूर...

बिलबिलाकर भूख से बच्चा जमीं पर सो गया

बोरियों में रखा अनाज जब कहीं खो गया!

 

माँ-बाप से लड़ती रही बरसाती के मकान में

इस शहर में देखो हमारा हाल कैसा हो गया?

 

अपने खून को जलाकर जो चार पैसे थे मिले

दो जून का निवाला  भी अब ख्व़ाब हो गया!


क्यों चले आये हम छोड़ कर उस छाँव को

भीड़ में जाने कहीं अपना सामान खो गया!


सूखे पड़े गाँव में बेचारा बाप क्या करेअमर’?

फंदे लटक कर किसान खामोशियों में सो गया!


-अमर कुशवाहा

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