कई गलियाँ, कई मकां, पैमानें बहुत हैं
ये मेरा शहर है जहाँ दीवानें बहुत हैं।
ख़ुदी में इस तरह सब डूब से गये हैं
हालात- ए -शहर में अनजाने बहुत है।
नफऱत भरी निग़ाह हाथों में लिये ख़ंजर
नशे की नई दस्तूर के मय-ख़ाने बहुत हैं।
घर राम का जले या ऱहीम का हो ख़ाक
उठते धुयें में बिख़रे अफ़साने बहुत हैं।
एक दीया मज़ार पर जला दे
ज़रा 'अमर'
-अमर कुशवाहा