और दिन बस जगा रह जाता है।
कहाँ तो ख़्वाब आते हैं रात के सपनों में
कुछ मीठे, कुछ खट्टे
कुछ नयीं तदवीरों की तस्वीर लिये
तो कुछ बीते पलछिन के धुँधले अक़्स
रात कभी ख़ामोश सी दिखती है
कभी हौले से मुस्कराती भी है
और दिन जगा सा उसे देखता रहता है
कभी ख़ामोश तो कभी मुस्कुराते हुये।
रात को सुलाने के लिये हर कोई लोरी गुनगुनाता है
पर दिन डूबा रहता है यथार्थ के शोर तले
कोई लोरी सुनाना भी चाहे तो दब जाती है चीख़ों में
और दिन बेचारा जगा ही रह जाता है।
रात का सूनापन भारी पड़ता है दिन के उजाले पर
शायद कभी तो वह शाम आये
जब रात ख़ुद दिन को अपनी गोदी में सुलाये
लोरी न सुनाये, न सही
बस अपने आँचल में ढककर
प्यार से, बस माथे को सहला दे
सदियों से दिन सोया नहीं है
उसकी आँखें भी शाम को बोझिल होती हैं थककर
शायद रात की थपकी से वह भी सो जाये
उसे भी वही सुकून चाहिये और वही स्वप्न
वह भी नींद में मुस्कराना चाहता है।
सदियों से दिन सोया नहीं है
उसकी आँखें भी शाम को बोझिल होती हैं थककर
शायद रात की थपकी से वह भी सो जाये
उसे भी वही सुकून चाहिये और वही स्वप्न
वह भी नींद में मुस्कराना चाहता है।
-अमर कुशवाहा