Tuesday, September 5, 2023

रात और दिन

रात सो जाती है चुपचाप्
और दिन बस  जगा रह जाता  है।
कहाँ तो ख़्वाब आते हैं रात के सपनों में
कुछ मीठे, कुछ खट्टे
कुछ नयीं तदवीरों की तस्वीर लिये
तो कुछ बीते पलछिन के धुँधले अक़्स
रात कभी ख़ामोश सी दिखती है
कभी हौले से मुस्कराती भी है
और दिन जगा सा उसे देखता रहता है 
कभी ख़ामोश तो कभी मुस्कुराते हुये।

रात को सुलाने के लिये हर कोई लोरी गुनगुनाता है
पर दिन डूबा रहता है यथार्थ के शोर तले
कोई लोरी सुनाना भी चाहे तो दब जाती है चीख़ों में
और दिन बेचारा जगा ही रह जाता है।

रात का सूनापन भारी पड़ता है दिन के उजाले पर
शायद कभी तो वह शाम आये
जब रात ख़ुद दिन को अपनी गोदी में सुलाये
लोरी न सुनाये, न सही
बस अपने आँचल में ढककर 
प्यार से, बस माथे को सहला दे
सदियों से दिन सोया नहीं है
उसकी आँखें भी शाम को बोझिल होती हैं थककर
शायद रात की थपकी से वह भी सो जाये
उसे भी वही सुकून चाहिये और वही स्वप्न
वह भी नींद में मुस्कराना चाहता है।

-अमर कुशवाहा 

Thursday, August 17, 2023

मित्र के नाम

प्रिय मित्र!

आज बहुत दिन बाद फ़ुरसत के कुछ पल मिले हैं। पहले तो मोबाइल फ़ोन को अपने हाथ में उठाकर तुमसे बात करना चाहा, पर नहीं! मैं न जाने क्यूँ ठहर गया! फ़ोन पर तो हम बहुत सारी बातें कर लेते हैं, पर वो बातें कभी भी बाहर नहीं निकल पाती जो हृदय के किसी कोनें में काफी गहरे बैठी रह गयीं। सोचा, क्यों न आज उसी सोते को बहने का मौक़ा दिया जाये। वैसे भी अगर तुम्हें याद हो तो तुम्हें ठीक पता होगा कि हम बिना मोबाइल फ़ोन वाले ज़माने में एक दूसरे को चिट्ठियाँ लिखा करते थे, जब हमारे रास्ते अलग-अलग लक्ष्यों के कारण अलग हो गये थे। आज भी वह सारे पत्र मेरे पास संभाल कर रखे हुए हैं, यक़ीनन दुनिया के बेशक़ीमती रत्नों से भी बढ़कर। कभी-कभी जब उदास होता हूँ तो अपना यही ख़ज़ाना खोल लेता हूँ, फिर उसमें से निकलकर तुम सब बाहर आ जाते हो और मैं फिर से हरा-ताज़ा हो जाता हूँ।एक-एक याद दृश्य बन मन के पटल पर चलचित्र सा चलने लगता हैं।पंत-भवन के गलियारे चहचहा उठते हैं, अचानक किसी की परखनली नीचे गिरकर छन्न से टूट कर बिखर जाती हैं।कि सारे के सारे अक़्ल के अंधे बनकर फ़िल्टर-पेपर से नींबू का रस छान रहे हैं। कि सुबह से तेज़ धड़कनों को दिल में ही दबाये बड़ी ही बेसब्री से पंत-भवन के पोर्टिको में किसी की आँखें किसी के आने की प्रतीक्षा कर रहीं हैं। कि कोई, कोई और ही बनकर प्रॉक्सी-अटेंडेंस के चक्कर में प्राध्यापक की डाँट सुन रहा है। कि कोई ठीक इसी ड्रामा के बीच कक्षा के पिछले दरवाज़े से निकल कर ग़ायब होने की फ़िराक़ में है।कि कोई धड़ाक से दरवाज़ा खोल कर सबको बाहर जाने के लिए कहता है और रोक लेता है केवल एक को सिर्फ़ एक प्रश्न के लिये, और फिर ज़मीन हिलने लगती है उस शख़्स की। कि कोई सुबह से एक के साथ सारे कक्षा छोड़कर किसी एक से कुछ कहने की चाह में हैं जिसे सुनकर वही कोई किंकर्तव्यविमूढ़ हो गटागट एक बोतल पानी पी रहा है। कि पिछली दीवार कूदकर कुछ सारे ज़ायके वाले समोसे खा रहे हैं।कि कहीं कोई सेमिनार में बैठकर नीचे रखे स्नैक्स के प्लेट पर निगाहें गड़ाकर बैठा है। मजीठिया -भवन में गुणा-भाग ने ज़ोर पकड़ रखी हैं। कि तभी कोई किसी और से वर्नीयर-कैलीपर्स माँग लेता है। कि कोई किसी से नोटबुक माँगने के बहाने बात आगे बढ़ाने के चक्कर में है।कि कोई ज़्यादे अंक पाने के अनुराग में है। कि कोई परीक्षा का शेड्यूल सूचना-पट्टी पर चस्पी कर रहा है। कि कोई गेस-पैपर्स के जुगाड़ में है। कि कोई दीक्षा-भवन में आख़िरी पंद्रह मिनट की घंटी बज़ा रहा है। कि कोई कह रहा है कि अब सबके रास्ते अलग-अलग हो जाएँगे।
और भी ऐसे अनगिनत् चित्र हैं, कुछ धुँधले तो कुछ 8K रेजोल्यूशन वाले। अब सारे के सारे तो लिखे नहीं जा सकते। मुझे यक़ीन है कि इसे पढ़कर तुम्हारी आँखों के आगे भी ठीक वही चलचित्र चलेगा, जो अभी मेरे सामने है। एक पूरी उम्र जी है हमने और अभी भी बहुत कुछ जीना है। पर क़िताब कितनी ही शानदार क्यों न हो, पांडुलिपि का अपना एक अलग ही मज़ा होता है। अच्छा एक बताना! क्या अब भी वो दुनिया वैसे ही गुलज़ार है? मुझे लिखना ज़रूर। तुम्हारे पत्र की प्रतीक्षा में!

-तुम्हारा मित्र!