शस्य श्यामला यमुना तट अब महलों की मथुरा
स्वछंद फ़िरा जो वन-उपवन राजपाश में था जकड़ा
थी बरसाने मथुरा में दूरी पर प्रेम को जिसने साधा
मैं बन के फिरूँ कृष्ण तुम्हारा तुम बन जाओ मेरी राधा!
जब तक होंठों पर थी मुरली ब्रज में संगम होता रहता
चक्र का बोझ अब हाथों में क़िससे कहता कैसे कहता?
भावों पर टिका था पूर्ण प्रेम, कभी मिलन बनी न बाधा
मैं बन के फिरूँ कृष्ण तुम्हारा तुम बन जाओ मेरी राधा!
घिरा हुआ अपनों से ब्रज में मथुरा में मन भी छोड़ गया
हर पहर प्रतीक्षा करते-करते स्वप्नों को भी तोड़ गया
प्रेम-वेदना दोनों सहते रहते बाँट बराबर आधा-आधा
मैं बन के फिरूँ कृष्ण तुम्हारा तुम बन जाओ मेरी राधा!
-अमर कुशवाहा
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