कभी न
चाहकर गम-ए-ज़फ़ा
भी लेता हूँ मैं
आफ़त है
तो क्या हुआ कभी-कभी लेता हूँ मैं!
घुप्प अंधेरी जंगल में
हर पल
छायी उबासीपन में
जब तनहा होता हूँ
कर याद
तुम्हें जी
लेता हूँ
मैं!
एक राह
चुनी है
पाने को
साथ तुम्हारा जीवन भर
तुम्हें सामने पाकर भी
जज्बातों को
सी लेता हूँ मैं!
जाने क्यों-कर आँखों में आँसूं तिरे फ़िर
से तैरें हैं
हौले से
किसी ने
छुआ फफक-फफक ही
लेता हूँ
मै!
ख़्वाबों में
आते रहना ठुकरा न
सके तुम
कभी ‘अमर’
खुली पलक, ख़ाली कमरा अश्क़ों को
पी लेता हूँ मैं!
-अमर कुशवाहा
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