Monday, August 21, 2017

दायरे

बस कुछ अनलिखे कागज़, एक कलम

और ढ़ेरों बिखरे हुये दायरे थे!

 

जितनी तेजी से इस दिल में

मुहब्बत की हूंक उठा करती थी

उतनी तेजी से अल्फाज़ नहीं मिलते थे

कलम में रसनाई बारहोबार भरा था मैंने

फ़िर भी कागज़ अनलिखे ही रह जाते थे!

 

इंतज़ार की कसक और उस पर ये इन्तिहाँ

जमाने के इस दर्द से मैं था वाकिफ़

पर जिक्र जब जमाने में होने लगे

और चाँद से चेहरे को परदे में रहना पड़े

उनकी ऐसी रुसवाई से मैं अक्सर डरता था!

 

हर दायरे को तोड़कर कलम को घसीटा मैंने

नाम उनका ही बस उकेर पाया था

कि, आँखों के समंदर से बरबस

एक बूँद जो टपकी एक-शब्द लिखे कागज़ पर

अनलिखा कागज़ भी नीला पड़ चूका था!

 

अब बस एक नीला अनलिखा कागज़

एक कलम और ढ़ेरों बिखरे हुये दायरे थे

और उन हर एक दायरे में मैं भी था

कहीं बिखरा तो कहीं सिमटा हुआ!


-अमर कुशवाहा

No comments: