मन के
कहीं एक
कोने से
तेरी सदा
फ़िर आयी
है
सदियों पुरानी तन्हाई फ़िर
से मुझ
पर छायी है!
कितनीं लंबी राते थीं
और कितने लंबे थे
वो दिन
दर्द पुराना ज़ख्म पुराना तेरी याद
ही तो
लायी है!
किसने कहा
हम भूल
चुके एक
क़सक तो
बाक़ी है
कुछ अश्क़ों के कारवाँ फ़िर
बह मुझे टकरायी है!
जाने कौन
दरीचा था
उन पलकों के उठने पर
मैंने अपनी बात कहीं और उसने सब बतलायी है!
नयी सदी
का ‘अमर’ मसीहा गुम
ख़ामोशी के
कुहरे में
दूर तलक
देखा है
फ़िर भी कोई
राह न
भायी आयी
है!
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