Monday, August 21, 2017

कुछ गाँव से (संस्मरण)_"१०० डेज़"

"कुछ बातें और चंद लमहें मन के पटल पर सदा के लिए अंकित हो जाते हैं। समय प्रतिक्षण बदलता रहता है किंतु वह दृश्य, वह क्षण हर समय आँखों के सामने स्थिर ही रहता है। एक माँ का 'ममत्व', अनवरत नाचते मयूर के मोरपंख़ों सदृश अनेक रंगों में अपने बच्चों के जीवन में अनेकानेक रंग बिखेरता रहता है, और द्रष्टा को यह दृश्य गोचर भी होता है, किंतु ठीक इसके विपरीत बीसवीं सदी के पिता के हृदय में अपने संतान के प्रति प्रेमभाव होने के उपरांत भी यदा-कदा ही वह प्रेम बहुत कम बार ही छलक कर बाहर आ पाता था। अक्सर कारण सामाजिक ही होता था जहाँ पिता को ठीक कुम्हार के कठोर हथौड़े की तरह समझा जाता था जो समय-समय पर कभी कम कभी ज़्यादा चोट करके अपनी संतान रूपी घड़े को एक आकार प्रदान करने का प्रयत्न करता था। मेरे पिता जी भी इससे कुछ अलग नहीं थे। समाज का दबाव, जिम्मेंदारियों का बोझ और संयुक्त परिवार की उठापटक जैसे अनेक समकालीन मुद्दे थे, जिससे उनका संतान-प्रेम अक्सर कर्तव्यपूर्ति मात्र ही दिखा करता था। किंतु कई ऐसे बहुमूल्य क्षण भी आए जब उनका संतान-प्रेम मेरे ऊपर बरसा, सिर्फ़ बरसा ही नहीं...बल्कि भावनाओं का एक बाढ़ जैसा रहा।मैं कोई नौ-दस वर्ष की उम्र का तब रहा होऊँगा, उस दिन गाँव पर मैं, पिताजी, बड़ी माता जी (बड़क़ी अम्माँ )और दादी भर थी, माँ भैया और छोटे भाई को लेकर कहीं गयीं हुई थीं और उनका स्वास्थ्य सदा की तरह कुछ ख़राब था। पिताजी शाम को काम पर से वापिस आए और रात के भोजन के उपरांत टेलिविज़न पर हम लोग "१०० डेज़" नामक मूवी देख रहे थे, जो रोमांचक और डरावने दृश्यों से भरपूर था। हमारे गाँव में बिजली का आगमन एक ट्रान्सफ़ार्मर से होकर आता था, जो गाँव में ही मेरे घर से थोड़ी ही दूर पर था। कुछ दिन पहले आयी आँधी में उसका तार थोड़ा ढीला हो चला था, जिसकी वजह से बिजली आ-जा रही थी।ठंडक का मौसम था और मुझे ठंड लग गयी थी जिसकी वजह से मुझे बुखार था और पूरा शरीर दर्द से परेशान था। पिताजी ने दवाई दी, किंतु उसका कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ। और जब मुझे बिलकुल भी राहत नहीं मिला तब पिताजी मेरा सिर और पॉव दबाने लगे और ख़ुद थके होने के बावजूद तबतक दबाते रहे जब तक कि मैं उनकी गोद में सिर रखे सो नहीं गया। हो सकता है, पिताजी का मेरा सिर और पॉव दबाना बहुतों को कोई असाधारण घटना न लगे, किंतु मेरे लिए वह क्षण अद्वितीय था क्योंकि पिताजी के इस रूप से अबतक मैं अनजान रहा था।अक्सर वह सुबह जल्दी ही काम पर निकल जाया करते थे और शाम को देर से ही आते थे।माँ के सानिध्य और संयुक्त परिवार की वजह से पिताजी का ऐसा साथ तब तक नहीं मिला था।उनके साथ अकेला मैं रहा होऊँ ऐसा तबतक की उम्र में पहली बार हुआ था।आज जबकि मैं ख़ुद पिता बन चुका हूँ, मैं अब उनकी चिंता, तड़प का अहसास लगा सकता हूँ, और इक्कीसवी सदी का पिता होने की वजह से अपने पुत्र के प्रति अपना प्रेम प्रदर्शित कर लेता हूँ...किंतु पिताजी के समय यह कठिन हुआ करता था और हम उन्हें केवल कठोर ही समझते रहे। उस घटना के उपरांत अनेकों बार पिताजी के इस रूप के दर्शन हुए, किंतु उस "१०० डेज़" की रात मेरे लिए विलक्षण थी।मैंने आजतक "१०० डेज़" मूवी पूरी नहीं देखी! जब भी देखने की कोशिश की, पिताजी का वही प्रेम दिखने लगता है और फ़िल्म फिर से अनदेखा रह जाता है।"

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