कठिन होता है लड़की होना
पिता-पति-पुत्र के बीच
जीवन भर कुढना
विदित है समस्त जग को!
किन्तु, अनायास ऐसे ही
सोचा है कभी?
कि लड़का होना भी
उतना ही दुष्कर है
इक्कीसवीं सदी के भारत में!
वह भी तो पिस उठता है
बचपन से ही
आने वाले कल की चिंता से
जहाँ इक्कीसवीं सदी में भी
अधिकाँश भारतीय समाज
केवल उसे पालक मानता है!
वह भी तो पिस उठता है
चार दीवारों के छोटे से कमरे में
पुस्तकों और डर के बीच
रोजगार नहीं मिला तो फ़िर,
न घर होगा और न ही शादी
क्योंकि लड़कियों के पिता को
बेरोजगार लड़के नहीं दिखते!
वह भी तो पिस उठता है
जब उसका विवाह होता है
और अगले ही दिन से वह
हो जाता है जिम्मेदार
हर उस कार्य का
जो उसकी पत्नी, और
उसके ससुराल वाले करते हैं
जबकि दोनों को ही पसंद किया था
ख़ुद ही माँ-बाप ने!
वह भी तो पिस उठता है
माँ और पत्नी के बीच
जब प्रतिदिन माँ उससे
उसका पुत्र होने का सबूत मांगती है!
और इक्कीसवीं सदी के संक्रमण से
गुजर रही पत्नी हर पल केवल अपना ही
अधिकार माँगती रहती है!
वह भी तो पिस उठता है
जब कट जाती है जड़, उन रिश्तों की
जिन्हें लाख कोशिश के बाद भी
वह संभाल नहीं पाता
क्योंकि विवाहोपरांत उसके पास
सिर्फ़ भार रह जाते हैं
अधिकार नहीं!
समझ में कुछ नहीं आता
किकर्तव्यविमूढ़ हूँ मैं
कि इस इक्कीसवी सदी के
संक्रमण के वृहद् दौर में
ज्यादा व्यथित कौन है?
-अमर कुशवाहा
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