मैं अशांत हूँ या फ़िर चंचल
कहीं भी
मन ठहरता नहीं!
असका दायरा बहुत ही
बड़ा है
इसने घेरा डाल रखा
है मेरे घर
बाहर तो
इसका अधिकार सिद्ध है!
मैं निकलना चाहता हूँ
इस अशांत के पीछे छिपे सूनेपन से
समेट लेना चाहता हूँ
शान्ति की
हर एक
बूँद!
सागर न
सही,
एक कुआँ तो भर
ही सकता है!
सागर ने
कब बुझायी है
किसी की
प्यास?
हर क्षण कितनी ही
नदियों का
मीठा जल
समेटता है
अपने अंदर
किन्तु रह
जाता है
फ़िर भी,
खारा का
खारा!
सोचो! कितने युगों से
वह प्यासा है?
मैं भी
अब,
-अमर कुशवाहा
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