Monday, July 2, 2018

नासूर...

ज़ख्म शमशीर  का हो गहरा तो भी भर जाता है

दर्द अपनों का दिया हो तो नासूर बन आता है!

 

कभी एक पल, कोई एक शब्द, कभी एक बात

रिस-रिस कर चुभता हुआ ताउम्र तड़पाता है!

 

माथा रगड़-रगड़कर जिसकी इबादत की मैंने

ठोकर रात के अंधेरे में पत्थर वही लगाता है!

 

ग़र लगाव का मरहम हो तो नजदीकियाँ बढ़ें

पत्ता थपेड़ों की मार से शाखों से टूट जाता है!

 

इस सिलसिले का मरतबा समझा नहींअमर

चाहकर कोई अपनों से कैसे दूर हो पाता है?


-अमर कुशवाहा

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