Saturday, July 7, 2012

वर्षा-ऋतु

आज श्रावण का अरुण-विहीन
दिवा अमावास की रात सा
प्रकाश के तन पर आसीन!
मेघ की स्वर्णिम कालिमा
द्युत आलोक में कौंध रही
आँचल अपना खोल रही!

सलिल-धूलि-कण का संगम
समीर के बंधन में बहका
दूर कहीं बिहंगम चहका!

टूट पड़े फ़ल पा तरुणाई
साथ गर्ज़न के है निर्मल
कल-कल-कल छल-छल-छल!

सीमाओं की सारी लघुता
पास हुयी और प्रगाढ़
पाकर बूँदों की आड़!

मोर नाचते अनंत ओर
पीहू व नवकल्पों का शोर
नहीं बंधन की कोई डोर!


-अमर कुशवाहा

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