Monday, December 4, 2017

भारत के भविष्य का शव

अभी माँ की ममता का आँचल

पूरा पसर भी पाया था

पिता के कंधे पड़े थे

शांत, अचेत, निर्विकार।

अब नहीं बैठेंगे उनपर आँख के तारे

भले ही मेलाओं की भीड़ हो।

किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा था देश आज

लादे हुये अपने जर्जर काँधे पर

अनगिनत शव अपने भविष्य का।

 

कुछ ने तो सीखा ही नहीं था

अब तकमाँबोलना,

ताकि लाल हो सके

लाल की लाली से उसकी माँ।

नहीं! लाल नहीं होने पायी धरती

गोरखपुर के मासूम साठ नौनिहालों के

स्वप्नों की काया में रक्त बचा कहाँ था?

बस बचा रह गया था कुछ तो,

वह थी माँ की टूटी आशा और

पिता की अतृप्त ईच्छा

कि बड़ा होकर बनेगा

उनका छोटा पुत्र श्रवण कुमार।

वह प्रधानमंत्री भी बन सकता था

या फिर मिसाइल मैन।

नियति का दुर्भाग्य कहूँ, या फिर

राजनीति की गंदी बिसात।

सो चुके थे सारे छः फ़ीट भूमि के नीचे

तोड़ सारे स्वप्न और

आँखों में उनकी आस लिये।

 

क्यों नहीं छिड़ा देशव्यापी आंदोलन?

क्यों नहीं हुआ सड़कजाम?

कहाँ छिप गया था मीडिया का पावर?

क्या केवल उन्हीं लाशों का अर्थ है

जिनकी जान जाती है

आतंक की गोलियों से?

या फिर उस भ्रष्टाचारी नेता का जिसके

मृत्योंपरांत होता है उसका महिमामंडन?

और दे दिया जाता है

कुछएक एकड़ भूमि का टुकड़ा!

ताकि बन सके उसकी समाधि,

जब कि शहरों की चौथाई आबादी

सोती हो फुटपाथ पर।

 

बस देखते ही रह गये थे

राम, ईश और अल्लाह।

कोई भी नहीं आया बचाने

भारत के भविष्य को।

जिन पर उत्तरदायित्व था, उन्हें

क्यों नहीं मिला प्राणवायु के सिलेण्डर।

बस सब भिड़े पड़े थे

कोसनें में एक दूसरे को।

कोई किसी को लापरवाह बताता

तो कोई अगस्त माह की ग़लती।

बस फेंकने में लगे थे

अपने कंधे पर रखे भारत के

भविष्य के शवों को

दूसरे के काँधों पर!

 

बस पकड़ा दिये जाते हैं

चंद रूपये मुआवज़े के नाम पर!

पर उससे लौट नहीं पाती

वापिस बच्चों की किलकारियाँ।

किंतु यह भीषण दुःख

केवल कुछएक का नहीं।

कब तक फेंकते रहेंगे

भारत के भविष्य के शवों को

एक दूसरे के काँधों पर?

कब तक ऐसे ही बिछी रहेंगी

राजनीति की गंदी बिसातें और

प्रभाव एवं परिचयवाद का असर?

यदि, यही रहा, तो

निश्चित ही किसी किसी दिन

होगा अपने ही काँधे पर

अपने ही घर के भविष्य के

शव का बोझ।

-अमर कुशवाहा

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