जब भी कभी मन हुआ
बीते हुये कल में फ़िर से
एक बार वापिस जाने को
तो आँखें बंद कर लेता हूँ
और सामने पाता हूँ
माँ का शांत चेहरा
झुर्रियों से भरपूर
सफ़ेद पके हुये बाल, और
आँखों की बुझती चमक!
उनके चेहरे की हर एक
सिलवट में छिपा है
मेरे एक-एक बर्षों का इतिहास!
उनके सफ़ेद पके बालों में है
मेरी बढ़ती हुयी उम्र का राज!
और
मेरी आँखों में जो चमक है,
ठीक उतना ही है, जितनी
माँ ने धीरे-धीरे अपनी
आँखों को बुझाकर दिये हैं!
कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ी
इतिहास के किताब की
क्योंकि माँ सम्पूर्ण ग्रन्थ है
वही आदि थीं, वहीँ अंत हैं!
और ज़िल्द हैं पिताजी
थोड़े मोटे, थोड़े सख्त!
उन्होंने कभी भी
ग्रन्थ को बिखरने नहीं दिया!
जिसमे मेरा इतिहास
मेरा बीता हुआ कल
-अमर कुशवाहा
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