बीतें दिनों की वो यादें रह-रह कर अब आतें हैं
अक्सर सांझ पहर से ही अक्स उनके टकरातें है
लहर बड़ी चंचल सी है आखिर साहिल के मध्य जो है
पर पूछे कोई किनारों से क्या उनका मिलन करातें हैं?
कभी समेटा है एक पल को कभी सिमटा हूँ एक पल में
कभी उमड़ा है पलकों में बादल कभी है आंधी अंतर्मन में
कभी घर सपनों के नयन में कभी नयनों के ख्वाब बसे हैं
इतने सारे धरती और अम्बर मेरे एक छोटे से जीवन में!
था समय कभी वो पास मेरे जो रेत सा फिसला करता है
उलझा यूँ अब यादों के बीच पल भी नहीं अब कटता है
रेत में घायल ऐसे पड़ा हूँ ऊपर भी एक ताप है
न जिन्दा हूँ न जीता ही हूँ सबसे बड़ा अभिशाप है!
काटी है जब इतनी रातें तो सदियाँ भी कट सकती है
जला है जब भी प्रचंड सूर्य हवा भी गर्म चलती है
दुनियां का दस्तूर रहा है आते सब एक साथ है
आज अगर है गम की यादें कल खुशियों की बरसात है!
-अमर कुशवाहा
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