आषाढ़ में वर्षा से पहले
जब मेघ इधर-उधर टहलें
सोचता हूँ मैं भी एक घटा बन जाऊं
खुद को भी सबके ऊपर बूंदों सा बिखराऊँ!
वो देखो एक काली घटा घुमड़ती है
जैसे सावन की याद उससे अब तक जुड़ी है
लहराकर पेड़ कुछ हैं ऐसे झूले
फुहारों की शीतलता मन भी है गीले!
क्या पक्षी बन इन बादलों सा कुलींचे भरूं
या इन झोंको के साथ उड़ना शुरू करूं
माँ कह रही मत जा बाहर भीग कर आओगे
पर,भीगना ही तो इस जीवन का लक्ष्य है!!!!
-अमर कुशवाहा
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