Tuesday, June 21, 2016

मरुस्थल


कितने बिखरे से लगते हैं

जिंदगी के पन्नें!

कहीं दबी चाहतें आहत हुईं हैं

कहीं पनप रहा हूँ मैं खुद भी!

तोड़ना चाहता हूँ हर बार

आखिरी हार के बाद भी

तुमसे जुड़े उन सपनों को

जो मैंने खुद के लिए देखे हैं!

पर खुद ही बिखर रहा हूँ

कल चला था आसमाँ छूनें

आज नींचे जमीं ढूँढ रहा हूँ!

 

कल ही तो देखा था

तुम्हारा चेहरा

अपनी आँखों में!

अक्सर मुझे ऐसा लगता है

कि, समय पीछे लौटने को आतुर है

या फिर मैं पीछे छूट गया हूँ!

 

भूला नहीं हूँ मैं अभी

अपने इन दो हाथों को

जो हर पहर

बारिश और सर्दी में

तुम्हारा कलाम लिखा करते थे

जैसे मुझसे रूठ गयें हों

तुमसे अलग होना तो

इन्होनें सीखा ही नहीं!

 

जिंदगी के उस पल का आखिरी दर्शन

क्या तुम्हें अभी भी याद है?

क्या तुम्हें याद है?

वो अमलतास के फूल

जो पेड़ों में लगा करते थे

क्या तुम्हें याद है?

तुम्हारे क़दमों की आहट

मेरी ही धड़कनें थी!

 

तुम चुप क्यूँ हो?

कुछ तो बोलो!

कुछ नहीं तो

अपनी मुस्कान ही बिखरा दो!

आखिर!

मैं क्यों हूँ?

मेरा अस्तित्व क्या है?

सब तुमसे ही तो जुड़ा है!

तुम्हारे बिना यह जीवन

जैसे मरुस्थल का वन

जिसमे पेड़ तो हैं

पर हिलने वाले पत्ते नहीं!


-अमर कुशवाहा

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