ऐ ह्रदय बता दे मैं तुझको क्रूर कहूँ या शूर कहूँ
या फिर तेरी विह्वलता के धारा के ही साथ बहूँ
पर निगमन क्यों-कर हो मेरा जब तू ही डूबा सा है
आज मेरे नगमों में फिर से एक सुर टुटा सा है!
भाव-भंगिमा के शब्दों का तुझे तनिक न ज्ञान है
क्या समझेगा उन क़दमों को जिनसे तू अंजान है
है चंचलता के हिचकोले या फिर वो रूठा सा है
आज मेरे नगमों में फिर से एक सुर टुटा सा है!
जिस रग में ज्योति जलती है उसको तू न जान सका
था पुष्पित जब वो सावन उनको न पहचान सका
सिसक पड़ी बुलबुल की राग जो अब तक अटका सा है
आज मेरे नगमों में फिर से एक सुर टुटा सा है!
अवगाहन कर अब क्या करना निशाँ नहीं जब बाकी है
जिसके सहारे खड़ा हूँ अब तक 'वो एक' मेरा साकी है
पर आज अचानक अब वो भी सपनों में उलझा सा है
आज मेरे नगमों में फिर से एक सुर टुटा सा है!
-अमर कुशवाहा
No comments:
Post a Comment