Saturday, June 18, 2016

भाग्य

जीवन के कुछ सत्य हैं कर्मों से बढ़कर
बिन पग बिन कर-कमलों के पहुंचे हैं चलकर
रोक रहे थे पग को सूर्य व सावन मिलकर
पर हर असफलता का करो निगमन डटकर!


हर्ष या विषाद घड़ी नहीं अब उन्माद नहीं
बिखरे जग की नीरवता का कोई संताप नहीं
परिक्रमण या परिभ्रमण सोंच का प्रयास नहीं
उठकर गिरती जल-तरंग लहरों का कोई ह्रास नहीं!


कितनी उम्मीदें थी जब नीरज मुस्काया था
फिर क्यूँ रोते-रोते इस जग में आया था
सपनो को किसने क्यूँ-कर पल में मुरझाया था
खुशियों पर अब तक लगा भविष्य का साया था!


चलते-चलते क़दमों ने कई दहलीजें पार कीं
उम्र की बढ़ती संख्या ने मानसिकता में बदलाव कीं
कदम थे पहुंचे कुछ आगे छोड़ बांहे बचपन की
पर आगे थी खड़ी हुई एक और अवस्था विप्लव की!


छोड़ के बचपन की यादें एक बार सपनों की फिर पूजा
इस पल के बाद कभी मौका मिले न कोई दूजा
पड़ गए कदम में बेड़ियाँ भाग्य का सत्य फिर गूंजा
इस बार किले का तोड़ मन में था न सूझा!


पल बीते कुछ और तब कई दहलीज मिले
हया के बर्षा से बागों में कई पुष्प खिले
पर हर्षों के साथ विषाद के कुछ क्षण मिले
अब नहीं भाग्य से सपनों के कोई गिले!!!!

-अमर कुशवाहा

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