Tuesday, June 21, 2016

बचपन

उस एक लम्हे को पाने को सारा जीवन मैं कर दूं अर्पण
काश!कि लौट पाता फिर से मेरे जीवन का वो बचपन!

था तितली पकड़ता दौड़-दौड़ फिर खुद अम्बर में मंडराता था
कर के शरारत एक भोली सी माँ के आँचल में छुप जाता था
पाकर माँ का प्रेमभाव फूलों सा निकल मैं आता था
ला स्पंदन एक होंठो पर फिर से मैं जुट जाता था!

उस एक लम्हे को पाने को सारा जीवन मैं कर दूं अर्पण
काश!कि लौट पाता फिर से मेरे जीवन का वो बचपन!

याद करूँ कोयल कि कूँ-कूँ या फिर बागों कि हरियाली
सुबह लालिमा बिखरी हुई पुरवईयां थी मतवाली
ताल बनाते डाल-डाल चेहरे पे सूरज सी लाली
तोड़ के फूलों को हाथों से सिर पे थी बिखराली!

उस एक लम्हे को पाने को सारा जीवन मैं कर दूं अर्पण
काश!कि लौट पाता फिर से मेरे जीवन का वो बचपन!

अंबर सा फैला वो बगीचा जिसमे मैं गिर जाता था
सुनकर माँ के उन शब्दों को फिर से मैं उठ जाता था
चारों तरफ से मेरा केवल खुशियों से ही नाता था
क्यूंकि हरदम आँखों में मैं माँ को ही पाता था!

उस एक लम्हे को पाने को सारा जीवन मैं कर दूं अर्पण
काश!कि लौट पाता फिर से मेरे जीवन का वो बचपन!

याद करूँ अब किन-किन को किस्सों या फिर कहानी को
माँ के हाथों की थपकी या फिर माँ की लोरी को
सुबह के सूरज को देखूं  या देखूं  रात के चंदा को
या फिर सूनी दीवारों पर देखूं जागी रातों को!

उस एक लम्हे को पाने को सारा जीवन मैं कर दूं अर्पण
काश!कि लौट पाता फिर से मेरे जीवन का वो बचपन!

-अमर कुशवाहा

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