Tuesday, June 21, 2016

यादें....बचपन की

मन 
हो  उठता है चंचल 
नहीं  रहती है और कोई धुन 
ताजे हवा के झोकों की तरह 
 वो  स्मृतियाँ 
हो  उठती हैं ताज़ी 
जो  बचपन में सच हुआ करती थी 




कुछ यादें, एक जीवन 
सपनें भी कितने सच लगते थे 
कागज़  की नावें 
तैरते , नाचते 
बरसात  के पानी में 
वो फिसलना 
गिर  कर संभलना



अब कितना सुहाना लगता है 
शायद  ही फिर कभी 
हमें  ऐसा बचपन मिले 
जिसके  साये के तले
हम  सबका 
जीवन  पले!


-अमर कुशवाहा

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