अँधेरा बैठा गुमसुम सा सामने
परखता हुआ आवाज का सूनापन
रूठा हुआ दीवारों के सन्नाटे से
ढूँढता अपनों के ही निशान
आज थका-थका सा कुछ है!
न जाने कितनी परछाइयां रोज ही
उसके सपनो में निरंतर रहते थे
अपनों के समन्वय की खुशी में
संसर्ग नदियों में सामान बहते थे
आज रुका-रुका सा कुछ है!
जो अपने भावों को शब्दों की शक्ल देता
अपने परिधानों से अपनी पहचान
देखता अब भी रेत में बारिश को
हर आशंकाओं से अब तक अनजान
आज झुका-झुका सा कुछ है!
कैसे तोड़ दे वो अपनी प्रतिज्ञा को
बरसों की लगन ने उसे पहाड़ बनाया है
कितनी हरियाली अब दिखती है
कैसे भूल जाये अपने सारे पल
आज मुड़ा-मुड़ा सा कुछ है!!!!
-अमर कुशवाहा
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