मेरे जीवन में तुम यूँ आये हो
जैसे कोई हवा का झोंका
बहार बन कर
मेरे अंदर विचर रहा हो!
साँसों पर मेरा काबू नहीं
रोकना चाहता हूँ खुद को, पर
कदम स्वतः
तुम्हारे पदचिह्नों के सहारे
तुम तक पहुँचने की उधेड़बुन में
चलते चले जातें हैं!
क्या तुम्हारे अमूर्त मुखड़े की
कल्पना कर पाऊंगा?
क्या तुम्हारे सौंदर्य की परिभाषा को
अपने शब्दों के जाल में गूंथ पाऊंगा?
क्या तुम्हारे आँखों की गहराई में
झाँका जा सकता है?
भले ही तुम कोई स्वप्न हो
मैं घिरना चाहता हूँ!
बार-बार देखना चाहता हूँ तुम्हें!
अपनी अँगुलियों से
तुम्हारी पलकों को छूना चाहता हूँ!
पर, डर लगता है-
कहीं खो न दूँ तुम्हें!
आख़िर ये सपने टूटते क्यों हैं?
कैसे ढूँढू इसका उत्तर?
अब तुम्हीं बतला दो
इस प्रतीक्षा की सीमा क्या है?
-अमर कुशवाहा
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