Tuesday, June 21, 2016

नई राह

पाँव फैले विस्तार के रोकते है राहों कि अडचनें
प्रतिदिन होता विस्तृत सा विश्व संकीर्ण कर रहीं धुनें
प्रारब्ध को हम कहें क्या बज रहीं संस्कृति के घुनघुने
पर बची है अब भी बेडियाँ कैसे हम राहें चुनें

मुस्कराते राहों में है बसा आंसुओं का सफर
दर्द के पीले नुकीले काँटों पर जिंदगी का असर
सब स्तर अवमानित सा खोजते हैं बस रहगुजर
पर सब कुछ पिघल जाता है पड़ती है जब उसकी नजर

घुँघरू की तरह बिखर रही समन्वय कि परिभाषा
वक्त से पहले बोझिल पलकों पे धुंध भरी आशा
बिलम्ब के दरवाजे से अट्टहास करती निराशा
उज्जवलित होगा फिर भी वो पाके झलक जरा सा

अनुग्रहित किया है क्या उसने या विकार समझ कर फेंक दिया
अवसाद के तूने बूँद दिए हैं या जो भी है यहीं से लिया
चलने का वरदान दिया है या ए पत्थर कि कुर्बानी है
और पात्र-प्रेम की मीमांसा को उत्तर हेतु अवतरित किया!


-अमर कुशवाहा

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