बूंदों से ही जुड़ा था मैं बूंदों में ही बिखरा हूँ
ब्रह्माण्ड से चौड़ा हूँ पर गलियों सा भी सकरा हूँ
अक्स है मेरा आईने में मैं खुद भी एक दर्पण हूँ
जीवन है मुझको अर्पित मैं भी उसको अर्पण हूँ!
विकराल गरजता है मुझपर मेरे भी अंदर गर्जन है
अगर तड़पता है वो तो मेरे भी अंदर तड़पन है
बेकल किया है उसने मुझे तो बेकल है वो खुद भी
अगर तपिश है मेरे अंदर तपा है पर वह खुद भी!
बंद किया है आँखे उसने पर मन को तो खोला है
अधर खुले भी न थे लेकिन कर्मों ने तो बोला है
अखंड को मथ कर ही अमृत-कलश को पाया है
क्या सुने सृष्टि की बातें सबके लिए यह माया है!
देना है यदि अब कुछ तो कर्मो का एक बंधन दे
शब्दों का निर्माण कर सकूँ कुछ ऐसा ही एक गुन दे
सबके लिए हो एक भाव ऐसा ही एक मन दे दे
मुझको रचने वाले रचयिता मुझको एक जीवन दे दे!
-अमर कुशवाहा
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