Tuesday, June 21, 2016

समय गतिशील है

मुझे वापस बुलाता है

वो पुराना तालाब  जिसमें

कभी बचपन में

मैं पत्थर फेंका करता था!

वो छोटा सा गाँव और

उसमे हमारी छोटी सी दुनिया..हमारा घर

जिसकी दीवारों पर

दीवाली और होली में

मैं सफेदी किया करता था!

वो आम का बगीचा

ठीक मेरे घर के आगे

उन पेड़ों कि डालों पर चढ़ना

और लखना-लखनी खेलते हुए कूदना

पैरों में खरोंच लगती थी

और माँ थप्पड़ मारकर पट्टी बाँधती थी!

 

मुझे वापस बुलाते हैं

वो लहलहाते खेत

जिनकी हरियाली मुझे हरा रखती थीं!

वो गर्मियों और सर्दियों में

खेतों का सींचा जाना, या फिर 

पानी की टंकी में नहाने का

एक और बहाना!

वो गाँव में जाकर

खेलना और घूमना

दोस्तों से झगड़ा करना

गुल्ली-डंडा खेलना

लड़कियों के साथ गिट्टियां खेलना

और सबसे छुपाकर

खेतों के बीच पत्ते खेलना!

 

मुझे वापस बुलाता है

वो पोखरा  जिसमे

चरवाहे भैसों को नहलाते थे

उसके पानी में कूदकर हाँथ-पाँव मारना

कितना लगन था तैरना सीखने में

कितना खुश हुआ था

जब मैं पहली बार तैरा था!

वो बारिश जिसके कीचड़ में

हम छप-छप किया करते थे

कबड्डी खेला करते थे!

 

मुझे वापस बुलातीं हैं

वो रातें जिनमें

सबकी नजरों से छुपकर

छत और जंगले के सहारे

मैं नीचे उतरा करता था

और दोस्तों के साथ

गाँवों में नाच देखने जाता था!

वो सुबहें जब

सबके जागने से पहले

जंगले के सहारे

छत पर चढ़कर सो जाना!

वो पल जिसमें

छत पर लेटकर

तारे गिनते-गिनते सो जाना

और सुबह अनमने मन से

स्कूल के लिए तैयार होना!

 

तालाब अभी भी है

आम का बगीचा और

उसकी डाल भी सलामत है!

खेत अभी भी लहलहाते हैं

अब भी पोखरों में भैंसे नहातीं हैं

नाच अभी भी गावों में होता है

पर.....

मैं कहीं नहीं हूँ!

क्या मैं कहीं खो गया हूँ?

नहीं!

मैं हूँ! वहीं कहीं हूँ!

मैं नहीं, मेरा बचपन खो गया है!

शायद नहीं!

मैं गलत कह रहा हूँ

मेरा बचपन उन छोटे-छोटे

बच्चों के किलकारी में है

अब जो धमाचौकड़ी करते हैं

जैसे मैं करता था कभी!

विश्वास नहीं होता

पर, करना पड़ता है कि

समय गतिशील है!


-अमर कुशवाहा

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