Tuesday, June 21, 2016

भीगी पलकें

है प्रज्वल्लित दीप अभी उन सपनो के जो देखा था 

है स्पंदन अब भी दिल में जो यादों में तेरे धड़का था 

है हलचल अब भी क़दमों में जिसपर कभी मैं थिरका था 

हैं अब तक भीगी वो पलकें जिनमे आँसूं बिखरा था!

 

है माह वही मौसम भी वही मगर आज मैं तनहा हूँ 

चक्र समय का चल रहा बन गया आज मैं नगमा हूँ 

दिन-प्रतिदिन होता है मंथन यादों का जड़ कुछ गहरा था

हैं अब तक भीगी वो पलकें जिनमे आँसूं बिखरा था!

 

है रात वही दिन भी वही पर नींद कहीं खोयी सी है 

सन्नाटा फैला उपवन में कलीं कहीं रोई सी है 

कितना खिलता था ये मन माली का इस पर पहरा था 

हैं अब तक भीगी वो पलकें जिनमे आँसूं बिखरा था!

 

है पंख वही आकाश वही उड़ने से मगर डर लगता है 

धुँआ-धुँआ सा फैला उपवन में स्पष्ट नहीं कुछ दिखता है 

पीली पड़ी सूरज कि किरणें जिसका ध्वज कभी फहरा था

हैं अब तक भीगी वो पलकें जिनमे आँसूं बिखरा था!

-अमर कुशवाहा

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