है प्रज्वल्लित दीप अभी उन सपनो के जो देखा था
है स्पंदन अब भी दिल में जो यादों में तेरे धड़का था
है हलचल अब भी क़दमों में जिसपर कभी मैं थिरका था
हैं अब तक भीगी वो पलकें जिनमे आँसूं बिखरा था!
है माह वही मौसम भी वही मगर आज मैं तनहा हूँ
चक्र समय का चल रहा बन गया आज मैं नगमा हूँ
दिन-प्रतिदिन होता है मंथन यादों का जड़ कुछ गहरा था
हैं अब तक भीगी वो पलकें जिनमे आँसूं बिखरा था!
है रात वही दिन भी वही पर नींद कहीं खोयी सी है
सन्नाटा फैला उपवन में कलीं कहीं रोई सी है
कितना खिलता था ये मन माली का इस पर पहरा था
हैं अब तक भीगी वो पलकें जिनमे आँसूं बिखरा था!
है पंख वही आकाश वही उड़ने से मगर डर लगता है
धुँआ-धुँआ सा फैला उपवन में स्पष्ट नहीं कुछ दिखता है
पीली पड़ी सूरज कि किरणें जिसका ध्वज कभी फहरा था
-अमर कुशवाहा
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