गर्दिशों में
हरपल मुश्किल-ए-कुशा होता है
जलता दिया भी कभी-कभार बुझा होता है!
मशरूफियत के
बादल अब
घेरें हैं
धूप को
होंठों को
चूमते ही
बरसात-ए-हुमा होता है!
ये इश्क़ का भी
एक शै
है आँधी से न
रुके
दीवानों के
आगे तो
झुका भी
ख़ुदा होता है!
नज़रें भी
तो समंदर हैं सुरूर ही चढ़े
जहाँ
दूर से
हर नज़ारा तो खुश-नुमा होता है!
बेतक्कलुफ़ हुआ
जहाँ से
तलाशता ‘अमर’
-अमर कुशवाहा
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