यह वही विवशता है
जो पहले भी ऐसे ही बहती थी
तुम यही समझते हो
कि
तुम्हारे पलायन पर
मैं बहुत खुश हुआ था?
लेकिन..शायद
तुम्हे यह नहीं मालूम
कि, मैंने अक्सर तूफानों में
स्वप्नों के महलों का निर्माण किया हैं!
जो जज्बा अंदर धधकता है वही
सुलगता हुआ बाहर आया है
कभी पुकारता हूँ दूर तक
कभी पैदा करता हूँ विश्वास
बहुत तमस है..बेरहमी भी
पर ढूँढता हूँ प्रकाश की लौ
उसी के सहारे उद्बोधन करना है तुम्हारा!
सारी कायनात जैसे थम गयी है
पर अब भी कहीं न कहीं
उम्मीद की एक किरण बाकी है!
अक्सर बहुत गहरी अनुभूति पैदा होती है
जो अंदर तक झकझोरती है
सवाल दर सवाल पूछता है दिल
इतिहास टटोलता है मेरा
और फिर दर्द की सच्चाई को
मेरी दो आँखें दे देता है!
एक अप्रतिम संवेदना मेरी
मुझे उन्हीं वादियों में वापिस बुला रही है!
फेंक दो मुझे बीच मंझधार में
न हो अस्तित्व कोई जमाने में
तोड़ दो आखिरी साँस
भेज दो यहाँ से दूर
बहुत दूर!
लिखो...तुरंत लिखो
स्वीकृति दो!
लिख दो मुझे वनवास
इस तरह लिखो कि मिट न जाये कभी!
अगर वनवास नहीं
तो मरू-वास ही लिख दो
ऐसे लिखो, कि
भटकता-ढूँढता रह जाऊं खुद को
कि रेत में खुद भी रेत हो जाऊं!
मैं आज कुछ भी नहीं लिखूँगा
कुछ भी नहीं!
लिखूँ क्या?
सोचूँ क्या?
कुछ भी न लिखूँगा!
कुछ भी न सोचूँगा!
बस यही कहना है अब
तुम्हारे बगैर बेमानी लगता है हर सपना
और बेमानी लगता है
जीवन का हर एक पन्ना!
-अमर कुशवाहा
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