गुमसुम तनहा मैं बैठा कि
कहीं नहीं फ़िर तुम
हो
है बिखरा नज़ारा चारों तरफ़ कहीं नहीं फ़िर
तुम हो!
हो स्वप्न की कोई
बात तो
दिखते केवल तुम हो
जब पलकों से नीदें उतरी कहीं नहीं फिर
तुम हो!
क्यों करते हो आँख-मिचौली मेरे इस सूने जीवन से
जब ढूँढा तुझको हाथ
बढ़ाकर कहीं नहीं फिर
तुम हो!
छाई नईं
कोपलें जब
पेड़ों पर
लगता है
कि तुम
हो
अब पतझड़ फैला चारों ओर कहीं नहीं फिर
तुम हो!
जब दिल
से चाहो तो स्वप्न हकीक़त बन
जाते ‘अमर’
-अमर कुशवाहा
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