अनगिनत तूफानों से लड़कर
बहाव के विपरीत चलते हुए
अपने मन के
कहीं अँधेरे कोने में
एक साँस बचा रखी है
उसे ऐसे जकड़ रखा है जैसे
वो कोई तिनका हो और
मैं लहरों से घिरा हूँ!
क्यूँ छोड़ दूं
अपने उस आखिरी आरजू को?
आखिरी ही सही
पर
मैं उसे अपना तो कह सकता हूँ!
शायद तुम्हें कहने से
कवच कहीं टूट न जाये
जो उस 'आखिरी' को आखिर तक
रक्षित करेगा!
यही तो बस एक विकल्प है..
एक सेतु
हम दोनों किनारों का
जो मिल तो नहीं सकते, पर
किसी के सहारे जुड़े तो हैं!!!
-अमर कुशवाहा
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