पैरों में थी पायल और छम-छम उसके गान थे
माथे पर चम-चम चमकती बिंदिया उसकी शान थे
मौसम उसके लिए खुद ही पल-पल बदला था
उसके गेसू में छुपना ही ऐसे मेरे अरमान थे!
उसके झुमकों की छांव में सूरज आ ठहरा था
अधरों के रंगों का राज बहुत ही गहरा था
मुस्कान जब भी खिलती फूल आ के झड़ते थे
आँखों की सुंदरता पर पलकों का पहरा था!
काया की बात ही क्या लता थी जैसे झुकी हुई
फूलों से कोमल हाथ एक-दूसरे से गुंथी हुई
चाल ऐसे थी चलती कि मादकता भी लजा जाए
सुनने को उसकी बातें घड़ी भी थी रुकी हुई!
स्पर्श का वो एहसास बिखरा है अब तक मन पर
स्वरों की मधुर तान गूंज रहे हैं कर्ण-पटल पर
क्या उसके बिना जीवन की चाह पूरी होगी?
शुरुआत तो वही हैं अंत का क्या पता मगर!
-अमर कुशवाहा
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