छलकें थे कुछ आंसू
तो अक्स उसका मिला था
मस्तिष्क के पटल पर
एक दृश्य सा खिला था
उस मूर्ति की चाह पहले ही
पहुँच चुकी थी शायद
अरमानों में बिखरकर
धूलों में मिल चुकी थी
उड़ती रही साथ-साथ
स्वप्नों के इस भंवर में
जोड़ू कैसे चित्रों को
विचार में खो चुकी थी
एक दिन अचानक
सावन झूम के आया
अरमानों के समंदर में
फूलों को बरसाया
तब जाके कहीं दूर
कण-कण में आ जुटे थे
और पुनः एक नए रूप को
बरबस ही रच चुके थे!!!!
-अमर कुशवाहा
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