नाँव भँवर में फंस चुकी जीवन समुद्र सा लग रहा
प्रारब्ध छुप गया सा है किनारा दूर हट रहा
देख गगन के सूर्य को हम खुद को ही मनाते हैं
अश्क भी कभी-कभी आँखों से रूठ जातें हैं!
निकला था जब सफर पे सबने कहा संभल के
आगे बढ़ेंगे पग मगर रोकेंगे वादे कल के
पैरों में हैं बेड़ियाँ उनसे न छूट पाते है
अश्क भी कभी-कभी आँखों से रूठ जातें हैं!
बादल बरस रहे हैं बिजली कड़क रही हैं
जाने धरा ये कैसे आवेग सह रही है
उस पर भी अधीर लोग जश्न सा मनाते हैं
अश्क भी कभी-कभी आँखों से रूठ जातें हैं!
सदियों से था निरंतर वो वक्त थम गया है
शायद किसी की याद में पत्थर सा जम गया है
देख तेरे चेहरे को हम अब भी मुस्कराते हैं
अश्क भी कभी-कभी आँखों से रूठ जाते हैं!
-अमर कुशवाहा
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