इस सर्द-ए-रात
में वो
जाने किधर गये हैं?
छुड़ा कर
अपना दामन बे-मुश्तहर गये हैं!
फाड़ता हूँ
दिन-रात
अश्क़ों से
लिखे ख़त
भेजूँ तो
कहाँ भेजूँ जाने किस
नगर गये
हैं!
काँपता है
बरबस अब
शाख़-ए-शज़र मेरा
जाते हुये ज़िगर पर
वह कर
असर गये
हैं!
अब साँस भी गले
तक आकर
अटकती है
कुछ इस
तरह से
रूह में
वो अखर
गये हैं!
नये दिल
पर नया
नक्श कैसे भरे ‘अमर’
मेरी रहगुजर में वो
ही हो
हमसफ़र गये
हैं!
-अमर कुशवाहा
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