Saturday, June 18, 2016

अतीत

जब भी लौटता हूँ अपने अतीत में
कुछ धुंधला सा दिखाई देता है!
शायद उसका चेहरा!
अब स्मृतियों के भी पर उग आये हैं
मुझे छोड़ के जाने के लिए!

जब भी लौटता हूँ अपने अतीत में
समय का कुठाराघात महसूस होता है!
एक कसक सा धधकता है सीने में!
बहुत कुछ गुबार बाहर निकालने हैं!
किससे कहूँ? कौन सुनेगा?

जब भी लौटता हूँ अपने अतीत में
मेरा बचपन दिखता है!
माँ की छावँ दिखती है!
पिता का कंधा दिखाई देता है!
भाइयों का स्नेह दिखाई देता है!

बस! अब और नहीं!
नहीं लौटना चाहता अपने अतीत में!
अपने आज से नफरत सी होने लगती है!
अब सागर तो है
मगर प्यास मर गयी है!
चेहरे तो वहीँ हैं
मुस्कान मर गयी है!!

-अमर कुशवाहा

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