कुछ मंजिलों के आस में सुदूर के प्रवास में
रोकते रहे नयन न रुका फिर भी मन
संकीर्ण से ब्रह्मांड को तोड़ के है दौड़ता
धीरे-धीरे ही सही नीड़ों को है जोड़ता!
वो निसार ढूँढता बेखबर देखता
अस्तित्व के विनाश का सूक्ष्म के परिहास का
सावन बरसता रहा राह भीगती रही
खिले हुए कुछ फूल को पल भर सींचती रही!
एक गगन के वास्ते निकले अनेक रास्ते
मुड़ता रहा पग मगर जग को भांपते
प्रयास चल रहा था बोझिल तरस रहा था
लक्ष्य पे निरंतर सपनों को बुन रहा था!
आँधी में उड़े पत्ते अग्नि पर जा गिरे थे
धधक रही ज्वाला उस ओर ही फिरे थे
लेकिन किसी का अक्स कहीं दूर झलक रहा था
मन के विचारों में मंथन वो कर रहा था!!!
-अमर कुशवाहा
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